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कर्म कांड और भगवद गीता

     पूजा और भगवत गीता 2


भगवत गीता जिसमें श्री कृष्णा के मुख से निकली हुई वाणी अमृततुल्य जीवन सार्थक करने वाली है  ।
इस जीवन को सार्थक करने के लिए गीता उपनिषद में जो बातें बताई गई है करोड़ों लोग उसे जानना चाहते हैं जानते हैं फिर भी पूजा पाठ कर्मकांड को नहीं समझना चाहते क्योंकि वह लोग समझते हैं गीता सिर्फ कर्म करने का उद्घोष करती है अर्थात बताती है
            परंतु उन लोगों को मालूम नहीं है गीता में कहीं भी पूजा पाठ नित्य किए जाने वाले यज्ञादि को मना नहीं किया जो दिनचर्या के निमित्त कार्य हैं उनको करना ही आवश्यक है






भगवद गीता अध्याय 17
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः॥
भावार्थ : हे भारत! सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अन्तःकरण के अनुरूप होती है। यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला है, वह स्वयं भी वही है॥3॥
यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये जयन्ते तामसा जनाः॥
भावार्थ : सात्त्विक पुरुष देवों को पूजते हैं, राजस पुरुष यक्ष और राक्षसों को तथा अन्य जो तामस मनुष्य हैं, वे प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं॥4॥
अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः।
दम्भाहङ्‍कारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः॥
भावार्थ : जो मनुष्य शास्त्र विधि से रहित केवल मनःकल्पित घोर तप को तपते हैं तथा दम्भ और अहंकार से युक्त एवं कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से भी युक्त हैं॥5॥
कर्शयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः।
मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्‌यासुरनिश्चयान्‌॥
भावार्थ : जो शरीर रूप से स्थित भूत समुदाय को और अन्तःकरण में स्थित मुझ परमात्मा को भी कृश करने वाले हैं (शास्त्र से विरुद्ध उपवासादि घोर आचरणों द्वारा शरीर को सुखाना एवं भगवान्‌ के अंशस्वरूप जीवात्मा को क्लेश देना, भूत समुदाय को और अन्तर्यामी परमात्मा को ''कृश करना'' है।), उन अज्ञानियों को तू आसुर स्वभाव वाले जान॥6॥





यहाँ पर भगवान श्री कृष्ण ने देव पूजा करने वाले व्यक्तियों को सात्विक बताया है
अर्थात देव पूजा के लिए अति उत्तम  बताया है






भगवद गीता अध्याय 18




यज्ञदानतप:कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् ।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ।।5।।

यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याग करने के योग्य नहीं हैं, बल्कि वह तो अवश्य कर्तव्य है, क्योंकि यज्ञ, दान और तप- ये तीनों ही कर्म बुद्धिमान पुरुषों को पवित्र करने वाले हैं ।।5।।








कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन ।
संगं त्यक्त्वा फलं चैव स त्याग: सात्त्विको मत: ।।9।।

हे अर्जुन[1] ! जो शास्त्रविहित कर्म करना कर्तव्य है- इसी भाव से आसक्ति और फल का त्याग करके किया जाता है – वही सात्त्विक त्याग माना गया है ।।9।।






हमारे शास्त्रों में लिखे सभी कर्म करने चाहिए अर्थात  भगवान  शास्त्रों में लिखी हुई पूजा पाठ को त्यागने के लिए नहीं कह रहे हैं




पंडित जितेंद्र सोहनलाल शर्मा

1 टिप्पणी:

हम से जुड़े रहने के लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद