पूजा और भगवद गीता
सही समझे आप गीता कहती है पूजा करे ।
कई लोग कहते है कि भगवद गीता मात्र कर्म और सिर्फ कर्म को ही प्रतिपादित करती है कर्म ही प्रधान है इस प्रकार से पूजा की कोई आवश्यकता ही नही
जी ऐसा कहना साफ गलत है गीता में कई जगह वर्णन किया है कि पूजा करे
गीता के दूसरे अध्याय सांख्य योग
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥ (४४)
भावार्थ : जो मनुष्य इन्द्रियों के भोग तथा भौतिक ऎश्वर्य के प्रति आसक्त होने से ऎसी वस्तुओं से मोहग्रस्त हो जाते है, उन मनुष्यों में भगवान के प्रति दृड़-संकल्पित बुद्धि नहीं होती है। (४४)
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥ (४५)
भावार्थ : हे अर्जुन! वेदों में मुख्य रुप से प्रकृति के तीनों गुणों का वर्णन हुआ है इसलिए तू इन तीनों गुणों से ऊपर उठ, हर्ष-शोक आदि द्वंद्वों से रहित तथा सुरक्षा की सारी चिन्ताओं से मुक्त आत्म-परायण बन। (४५)
दृढ़ संकल्पित बनाने और आत्म परायण बनाने का काम ही पूजा करती है
आप मूर्ति पूजा कायिक पूजा वाचिक पूजा के द्वारा (सहायता) मन को प्रभु में लगाने का काम करते है(मानसिक पूजा करते है) तभी तो आपका मन दृढ़ संकल्पित होगा और दृढ़ सकल्पित मन वाला ही आत्म परायण बन सकता है
भगवद गीता तीसरा अध्याय
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥ (७)
भावार्थ : हे अर्जुन! जो मनुष्य मन के द्वारा इन्द्रियों को वश में करने का प्रयत्न करता है और बिना किसी आसक्ति के कर्म-योग (निष्काम कर्म-योग) का आचरण करता है, वही सभी मनुष्यों में अति-उत्तम मनुष्य है। (७)
यहाँ भगवान निष्काम कर्म करने के लिए कह रहे है और पूजा के अंत मे चाहे गणेश पूजा हो या सत्यनारायण अन्ते में न मम और ब्रह्मर्पणमस्तु इन दो शब्दों से भी यही निष्काम भावना ही प्रगट होती है
तीसरा अध्याय
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाचप्रजापतिः ।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥ (१०)
भावार्थ : सृष्टि के प्रारम्भ में प्रजापति ब्रह्मा ने यज्ञ सहित देवताओं और मनुष्यों को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ द्वारा सुख-समृध्दि को प्राप्त करो और यह यज्ञ तुम लोगों की इष्ट (परमात्मा) संबन्धित कामना की पूर्ति करेगा। (१०)
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥ (११)
भावार्थ : इस यज्ञ द्वारा देवताओं की उन्नति करो और वे देवता तुम लोगों की उन्नति करेंगे, इस तरह एक-दूसरे की उन्नति करते हुए तुम लोग परम-कल्याण (परमात्मा) को प्राप्त हो जाओगे। (११)
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंक्ते स्तेन एव सः ॥ (१२)
भावार्थ : यज्ञ द्वारा उन्नति को प्राप्त देवता तुम लोगों की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करेंगे, किन्तु जो मनुष्य देवताओं द्वारा दिए हुए सुख-भोगों को उनको दिये बिना ही स्वयं भोगता है, उसे निश्चित-रूप से चोर समझना चाहिये। (१२)
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः ।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ॥ (१३)
भावार्थ : यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले भक्त सब पापों से मुक्त हो जाते हैं किन्तु अन्य लोग जो अपने इन्द्रिय-सुख के लिए ही भोजन पकाते हैं, वे तो पाप ही खाते हैं। (१३)
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः ।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥ (१४)
भावार्थ : सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वर्षा से होती है, वर्षा की उत्पत्ति यज्ञ सम्पन्न करने से होती है और यज्ञ की उत्पत्ति नियत-कर्म (वेद की आज्ञानुसार कर्म) के करने से होती है। (१४)
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् ।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥ (१५)
भावार्थ : नियत कर्मों का विधान वेद में निहित है और वेद को शब्द-रूप से अविनाशी परमात्मा से साक्षात् उत्पन्न समझना चाहिये, इसलिये सर्वव्यापी परमात्मा ब्रह्म-रूप में यज्ञ में सदा स्थित रहता है। (१५)
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥ (१६)
भावार्थ : हे पृथापुत्र! जो मनुष्य जीवन में इस प्रकार वेदों द्वारा स्थापित यज्ञ-चक्र (नियत-कर्म) का अनुसरण नहीं करता हैं, वह निश्चय ही पापमय जीवन व्यतीत करता है। ऎसा मनुष्य इन्द्रियों की तुष्टि के लिये व्यर्थ ही जीता है। (१६)
(नियत-कर्म का निरुपण)
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥ (१७)
भावार्थ : परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही आनन्द प्राप्त कर लेता है तथा वह अपनी आत्मा मे ही पूर्ण-सन्तुष्ट रहता है, उसके लिए कोई नियत-कर्म (कर्तव्य) शेष नहीं रहता है। (१७)
यहां पर यज्ञ प्रतिपादन का सूत्र बताते हुए आत्म सूत्र का वर्णन किया है आगे के अध्यायों में कई जगह प्रयास करने के लिए भी भगवान कहते है
अर्थात सभी लोग आत्मा में हि आनन्द प्राप्त करे तो यह सब बिना प्रयाश तो हो नही सकता इसके लिए आपको प्रयास तो करना पड़ेगा
इसी प्रयाश का नाम ही पूजा है
पंडित जितेंद्र सोहन लाल शर्मा
ग्राम रूवा पोस्ट सानिया
तहसील डीडवाना जिला नागौर
राजस्थान
कार्यरत ठाणे महाराष्ट्र
सही समझे आप गीता कहती है पूजा करे ।
कई लोग कहते है कि भगवद गीता मात्र कर्म और सिर्फ कर्म को ही प्रतिपादित करती है कर्म ही प्रधान है इस प्रकार से पूजा की कोई आवश्यकता ही नही
जी ऐसा कहना साफ गलत है गीता में कई जगह वर्णन किया है कि पूजा करे
गीता के दूसरे अध्याय सांख्य योग
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥ (४४)
भावार्थ : जो मनुष्य इन्द्रियों के भोग तथा भौतिक ऎश्वर्य के प्रति आसक्त होने से ऎसी वस्तुओं से मोहग्रस्त हो जाते है, उन मनुष्यों में भगवान के प्रति दृड़-संकल्पित बुद्धि नहीं होती है। (४४)
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥ (४५)
भावार्थ : हे अर्जुन! वेदों में मुख्य रुप से प्रकृति के तीनों गुणों का वर्णन हुआ है इसलिए तू इन तीनों गुणों से ऊपर उठ, हर्ष-शोक आदि द्वंद्वों से रहित तथा सुरक्षा की सारी चिन्ताओं से मुक्त आत्म-परायण बन। (४५)
दृढ़ संकल्पित बनाने और आत्म परायण बनाने का काम ही पूजा करती है
आप मूर्ति पूजा कायिक पूजा वाचिक पूजा के द्वारा (सहायता) मन को प्रभु में लगाने का काम करते है(मानसिक पूजा करते है) तभी तो आपका मन दृढ़ संकल्पित होगा और दृढ़ सकल्पित मन वाला ही आत्म परायण बन सकता है
भगवद गीता तीसरा अध्याय
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥ (७)
भावार्थ : हे अर्जुन! जो मनुष्य मन के द्वारा इन्द्रियों को वश में करने का प्रयत्न करता है और बिना किसी आसक्ति के कर्म-योग (निष्काम कर्म-योग) का आचरण करता है, वही सभी मनुष्यों में अति-उत्तम मनुष्य है। (७)
यहाँ भगवान निष्काम कर्म करने के लिए कह रहे है और पूजा के अंत मे चाहे गणेश पूजा हो या सत्यनारायण अन्ते में न मम और ब्रह्मर्पणमस्तु इन दो शब्दों से भी यही निष्काम भावना ही प्रगट होती है
तीसरा अध्याय
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाचप्रजापतिः ।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥ (१०)
भावार्थ : सृष्टि के प्रारम्भ में प्रजापति ब्रह्मा ने यज्ञ सहित देवताओं और मनुष्यों को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ द्वारा सुख-समृध्दि को प्राप्त करो और यह यज्ञ तुम लोगों की इष्ट (परमात्मा) संबन्धित कामना की पूर्ति करेगा। (१०)
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥ (११)
भावार्थ : इस यज्ञ द्वारा देवताओं की उन्नति करो और वे देवता तुम लोगों की उन्नति करेंगे, इस तरह एक-दूसरे की उन्नति करते हुए तुम लोग परम-कल्याण (परमात्मा) को प्राप्त हो जाओगे। (११)
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंक्ते स्तेन एव सः ॥ (१२)
भावार्थ : यज्ञ द्वारा उन्नति को प्राप्त देवता तुम लोगों की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करेंगे, किन्तु जो मनुष्य देवताओं द्वारा दिए हुए सुख-भोगों को उनको दिये बिना ही स्वयं भोगता है, उसे निश्चित-रूप से चोर समझना चाहिये। (१२)
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः ।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ॥ (१३)
भावार्थ : यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले भक्त सब पापों से मुक्त हो जाते हैं किन्तु अन्य लोग जो अपने इन्द्रिय-सुख के लिए ही भोजन पकाते हैं, वे तो पाप ही खाते हैं। (१३)
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः ।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥ (१४)
भावार्थ : सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वर्षा से होती है, वर्षा की उत्पत्ति यज्ञ सम्पन्न करने से होती है और यज्ञ की उत्पत्ति नियत-कर्म (वेद की आज्ञानुसार कर्म) के करने से होती है। (१४)
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् ।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥ (१५)
भावार्थ : नियत कर्मों का विधान वेद में निहित है और वेद को शब्द-रूप से अविनाशी परमात्मा से साक्षात् उत्पन्न समझना चाहिये, इसलिये सर्वव्यापी परमात्मा ब्रह्म-रूप में यज्ञ में सदा स्थित रहता है। (१५)
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥ (१६)
भावार्थ : हे पृथापुत्र! जो मनुष्य जीवन में इस प्रकार वेदों द्वारा स्थापित यज्ञ-चक्र (नियत-कर्म) का अनुसरण नहीं करता हैं, वह निश्चय ही पापमय जीवन व्यतीत करता है। ऎसा मनुष्य इन्द्रियों की तुष्टि के लिये व्यर्थ ही जीता है। (१६)
(नियत-कर्म का निरुपण)
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥ (१७)
भावार्थ : परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही आनन्द प्राप्त कर लेता है तथा वह अपनी आत्मा मे ही पूर्ण-सन्तुष्ट रहता है, उसके लिए कोई नियत-कर्म (कर्तव्य) शेष नहीं रहता है। (१७)
यहां पर यज्ञ प्रतिपादन का सूत्र बताते हुए आत्म सूत्र का वर्णन किया है आगे के अध्यायों में कई जगह प्रयास करने के लिए भी भगवान कहते है
अर्थात सभी लोग आत्मा में हि आनन्द प्राप्त करे तो यह सब बिना प्रयाश तो हो नही सकता इसके लिए आपको प्रयास तो करना पड़ेगा
इसी प्रयाश का नाम ही पूजा है
पंडित जितेंद्र सोहन लाल शर्मा
ग्राम रूवा पोस्ट सानिया
तहसील डीडवाना जिला नागौर
राजस्थान
कार्यरत ठाणे महाराष्ट्र
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