रविवार, 21 जनवरी 2018

अमावस्या की शांति क्यो और कैसे

_नमस्कार आप सभी का स्वागत है आज जानते हैं अमावस्या शांति के बारे में_


जन्मकुंडली में चंद्रमा और सूर्य एक साथ में रहते हैं तो अमावस्या योग बनता है अर्थात उस दिन अमावस्या होती है
यदि आपकी कुंडली में यह योग बनता है तो कोई भी ज्योतिषी आपको अमावस्या शांती के लिए कहता है
मित्रों ऐसा क्या है इस योग में की शांति करानी पड़ती है सूर्य आत्मा कारक है पिता का कारक है चंद्रमा मन का कारक है माता का कारक है जब आपस में साथ में रहे तो शांति क्यों करनी पड़ती है क्या आपके माता-पिता साथ में रहे क्या शुभ नहीं लगता??

मन और आत्मा का मिलन क्या शुभ नहीं है?

आइए इसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखते हैं विज्ञान कहता है चंद्रमा पृथ्वी का उपग्रह है चंद्रमा पृथ्वी के चारों ओर चक्कर काटता रहता है चंद्रमा को पृथ्वी के एक चक्कर में लगभग 27 दिन लगते है चंद्रमा की चमक सूर्य से हैं सूर्य की किरणें जब चंद्रमा पर पड़ती हैं तो वह चमकता हुआ दिखाई देता है परंतु जब सूर्य और पृथ्वी के बीच में खुद चंद्रमा आता है तो अमावस्या होती है इस प्रकार से सूर्य से चंद्रमा की दूरी को ही तिथि कहा जाता है इसका अर्थ हुआ कि जब सूर्य के साथ में चंद्रमा बैठता है चंद्रमा अपने खुद का अस्तित्व समाप्त कर लेता है उसका चमकना बंद हो जाता है


ज्योतिष के अनुसार सूर्य पिता का कारक है चंद्र माता का कारक है कोई भी भारतीय नारी अपने पति के सानिध्य में ही कार्य करती है अपने अधिकारों को पति को दे देती है



अमावस्या योग में जातक के मन को बहुत ही प्रभावित माना जाता है मानसिक स्थिति बरोबर नही रहती है

जिसके मानसिक स्थिति बराबर नहीं रहती वह कोई भी कार्य ठीक ढंग से नहीं कर सकता निर्णय शक्ति कमजोर होती हैं मन में एक भय रहता है


अतः इस दोष को दूर करने के लिए चंद्रमा के मंत्रों का जप कम से कम पंचांग अनुसार 11000  विद्वानों के अनुसार कलयुग में 4 गुना ज्यादा जप करना चाहिए इसलिए 44000 जप होने के बाद में दशांश हवन तर्पण मार्जन ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए इसी से अमावस्या की शांति होती है

अमावस्या तिथि के देवता पितृ  हैं इसीलिए लोग पितरों की भी पूजा करते हैं


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पंडित जितेंद्र सोहन लाल शर्मा

धन्यवाद🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻

शनिवार, 20 जनवरी 2018

माला का रहस्य Rosary's secret




नमस्कार दोस्तों आपका स्वागत है आइए जानते हैं की माला क्या है 
आपने बहुत से लोगों को माला घुमाते हुए देखा होगा कोई रुद्राक्ष की माला फेरता है कोई तुलसी की माला फेरता है परंतु आपने कभी सोचा है कि माला क्यों फेरते हैं
 मंत्रों का जाप करने के लिए क्या भगवान को याद करने के लिए किसी माला की जरूरत है जी नहीं ऐसा कदापि नहीं है

 भगवान का नाम तो बिना माला के लिए जा सकता है भगवान का नाम गिनने के लिए तो हां शायद लोग इसीलिए माला हाथ में रखते हैं कि भगवान का नाम कितनी बार लिया उन्हें पता रहे

क्या आप खाना खाते समय निवाले गिनते हैं तो आप कहेंगे कि नहीं
आप कर्म करते समय अपने कर्मों का लेखा जोखा रखते हैं आप कहेंगे नहीं

आप अपने किए हुए पाप कर्म पुण्य कर्म का लेखा-जोखा रखते हैं आप आएंगे नहीं
तो फिर भगवान के नाम का लेखा-जोखा गिनती क्यों रखते हैं
कबीरदास जी ने कहा है
माला तो मन में फिरे जीभ फिरे मुख माहि मनुवा तो चहूं दिसि फिरै यह तो सुमिरन नाही

अगर आपका मन चारों तरफ भटक रहा है और हाथ में माला घूम रही है इस प्रकार के जप से क्या लाभ?
 तो आइए जानते हैं माला का रहस्य
1 मित्रों माला के माध्यम से हमारे मन को नियंत्रित करने प्रक्रिया बनाई गई है जब तक आपके हाथ में माला रहेगी तब तक आप अपने मन में इस बात को ध्यान में रखेंगे की मुझे इष्ट देवता के मंत्र का जप करना है
2 विशेष देवता के लिए विशेष प्रकार के माला का उपयोग बताया गया है जिसमें विशेष प्रकार की शक्ति होती है जैसे लक्ष्मी के लिए स्फटिक की माला भगवान शंकर के लिए रुद्राक्ष की माला भगवान महाविष्णु के लिए तुलसी की माला
3 माला फेरने की जो प्रक्रिया है उसमें अंगूठी मध्यमा अनामिका का उपयोग होता है जिससे मानसिक शक्ति जागृत होती है आध्यात्मिक शक्ति जागृत होती हैं और मन हमारे इष्टदेव की तरफ लगा रहता है
4 माला विशेष अनुष्ठान के लिए अति आवश्यक है क्योंकि उसी से निर्धारित किया जा सकता है कितने जप हुए क्योंकि जितने जब होते हैं उन का दशांश हवन करना जरूरी होता है उसके बाद तर्पण मार्जन हो ब्राह्मण भोजन भी

5 एक माला में 108 मनके होते हैं जिसमें सो को ही गिना जाता है बाकी 8 कमअधिक दोष के लिए छोड़ देते है
6 माला धारण करने से कई बीमारियों से राहत मिलती है
7 सही तरीके से माला फेरी जाए तो जप के द्वारा हमारे कुंडलिनी शक्ति तथा चक्र जागृत होते हैं
8 ज्योतिष के हिसाब से अगर किसी भी ग्रह के लिए उस ग्रह के अनुसार रुद्राक्ष की माला धारण कर ली जाए तो उस ग्रह का दोष कम होता है
9 माला का पूजन करके शुद्धीकरण संस्कार आदि करके अगर जप किया जाता है तो बहुत ही ज्यादा लाभ मिलता है यदि वह भी नहीं हो सकता येन केन प्रकारेण भी जप किया जाए तो लाभदाई ही  हैं
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और आप तो जानते ही हैं कि धर्म है तो सब है

पंडित जीतेंद्र सोहनलाल शर्मा धन्यवाद
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शनिवार, 13 जनवरी 2018

कर्मकांड और ज्योतिष







 आइए आज समझते हैं की पूजा पाठ और ज्योतिष का क्या संबंध है


यदि आप किसी ज्योतिषी के पास जाते हैं आपकी कोई समस्या है ज्योतिषी  आपकी जन्म पत्रिका देख कर के बताते हैं कि कौन सा ग्रह आपके लिए लाभदायक है कौन सा तकलीफदायक है किस ग्रह का दान करना है किसकी पूजा करनी है और किस ग्रह को नदी में बहा देना कुंडली में कौन-कौन से शुभ योग बन रहे हैं कुंडली में कौन-कौन से अशुभ योग बन रहे हैं ंंअशुभ योगों के लिए कौन सी पूजा पाठ करनी चाहिए
       


ज्योतिष मनुष्य मात्र  भविष्य को सफल  बनाने  के लिए है ज्योतिष में ग्रहों को बल दिया जाता है परंतु कर्मकांड आदि अनादि काल से हमारे भूत भविष्य वर्तमान के लिए सदैव उपयोगी रहा है उपयोगी रहेगा क्योंकि कर्मकांड के अंतर्गत हमारी दिनचर्या किस प्रकार होनी चाहिए किस प्रकार भजन करना चाहिए किस प्रकार भोजन करना चाहिए सभी का वर्णन है

 हमारे सभी प्रकार के कर्मों को वैदिक रीति से उज्जवल दिव्य बनाना ही कर्मकांड है


बहुत सारे लोग समझते हैं हिंदू संस्कृति के अंदर जो पूजा पाठ किया जाता है पंडित के द्वारा जो पूजा पाठ किया जाता है उसी का नाम कर्मकांड है परंतु ऐसा नहीं है हमारे जीवन में जागते जो भी कर्म करते हैं सब कर्मकांड ही है क्योंकि कोई भी समय मनुष्य कर्म नहीं  करते हुए भी कोई ना कोई कर्म करता ही है


तो आइए जानते हैं कर्मकांड अर्थात पूजा पाठ में किस प्रकार से ज्योतिष का समावेश है

ज्योतिष के अंदर सूर्य की पूजा कर्मकांड में संध्या कुमकुम आदि  सूर्य की ही पूजा है
ज्योतिष के अंदर चन्द्र कर्मकाण्ड में वरुण जल की पूजा 
ज्योतिष के अंदर  मंगल  कर्मकांड में भूमि
ज्योतिष के अंदर बुध कर्मकांड में तुलशी दूर्वा
ज्योतिष के अंदर गुरु कर्मकांड में हल्दी गुरु आदि
ज्योतिष के अंदर शुक्र कर्मकांड में श्रंगार आदि की वस्तुएं
ज्योतिष के अंदर शनि कर्मकांड में वंदना प्रार्थना साष्टांग प्रणाम
ज्योतिष के अंदर राहु कर्मकांड में अगरबत्ती धूप आदि
ज्योतिष के अंदर केतु कर्मकांड में मानसिक पूजा ध्यान आदि

इन सब बातों के अलावा हम सभी लोग जानते हैं कि पूजा कर्म के अंदर गणपति पूजा के बाद में वरुण पूजा गोरी आदि षोडशमातृका पूजा के बाद में नवग्रह पूजा जरूरी है उनके अधिदेवता प्रत्याधी देवता भी  कर्मकांड के अंदर ज्योतिष का समावेश ही है


पूजा पाठ  से ही ज्योतिष की सार्थकता है 
इस प्रकार से ज्योतिष और कर्मकांड अर्थात पूजा पाठ दोनों एक दूसरे के पूरक है

पंडित जितेंद्र सोहन लाल शर्मा


                      धन्यवाद

बुधवार, 10 जनवरी 2018

कर्म कांड और भगवद गीता

     पूजा और भगवत गीता 2


भगवत गीता जिसमें श्री कृष्णा के मुख से निकली हुई वाणी अमृततुल्य जीवन सार्थक करने वाली है  ।
इस जीवन को सार्थक करने के लिए गीता उपनिषद में जो बातें बताई गई है करोड़ों लोग उसे जानना चाहते हैं जानते हैं फिर भी पूजा पाठ कर्मकांड को नहीं समझना चाहते क्योंकि वह लोग समझते हैं गीता सिर्फ कर्म करने का उद्घोष करती है अर्थात बताती है
            परंतु उन लोगों को मालूम नहीं है गीता में कहीं भी पूजा पाठ नित्य किए जाने वाले यज्ञादि को मना नहीं किया जो दिनचर्या के निमित्त कार्य हैं उनको करना ही आवश्यक है






भगवद गीता अध्याय 17
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः॥
भावार्थ : हे भारत! सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अन्तःकरण के अनुरूप होती है। यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला है, वह स्वयं भी वही है॥3॥
यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये जयन्ते तामसा जनाः॥
भावार्थ : सात्त्विक पुरुष देवों को पूजते हैं, राजस पुरुष यक्ष और राक्षसों को तथा अन्य जो तामस मनुष्य हैं, वे प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं॥4॥
अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः।
दम्भाहङ्‍कारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः॥
भावार्थ : जो मनुष्य शास्त्र विधि से रहित केवल मनःकल्पित घोर तप को तपते हैं तथा दम्भ और अहंकार से युक्त एवं कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से भी युक्त हैं॥5॥
कर्शयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः।
मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्‌यासुरनिश्चयान्‌॥
भावार्थ : जो शरीर रूप से स्थित भूत समुदाय को और अन्तःकरण में स्थित मुझ परमात्मा को भी कृश करने वाले हैं (शास्त्र से विरुद्ध उपवासादि घोर आचरणों द्वारा शरीर को सुखाना एवं भगवान्‌ के अंशस्वरूप जीवात्मा को क्लेश देना, भूत समुदाय को और अन्तर्यामी परमात्मा को ''कृश करना'' है।), उन अज्ञानियों को तू आसुर स्वभाव वाले जान॥6॥





यहाँ पर भगवान श्री कृष्ण ने देव पूजा करने वाले व्यक्तियों को सात्विक बताया है
अर्थात देव पूजा के लिए अति उत्तम  बताया है






भगवद गीता अध्याय 18




यज्ञदानतप:कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् ।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ।।5।।

यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याग करने के योग्य नहीं हैं, बल्कि वह तो अवश्य कर्तव्य है, क्योंकि यज्ञ, दान और तप- ये तीनों ही कर्म बुद्धिमान पुरुषों को पवित्र करने वाले हैं ।।5।।








कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन ।
संगं त्यक्त्वा फलं चैव स त्याग: सात्त्विको मत: ।।9।।

हे अर्जुन[1] ! जो शास्त्रविहित कर्म करना कर्तव्य है- इसी भाव से आसक्ति और फल का त्याग करके किया जाता है – वही सात्त्विक त्याग माना गया है ।।9।।






हमारे शास्त्रों में लिखे सभी कर्म करने चाहिए अर्थात  भगवान  शास्त्रों में लिखी हुई पूजा पाठ को त्यागने के लिए नहीं कह रहे हैं




पंडित जितेंद्र सोहनलाल शर्मा

मंगलवार, 9 जनवरी 2018

पुजा और भगवद गीता

    पूजा और भगवद गीता

सही समझे आप  गीता कहती है पूजा करे ।
 कई लोग कहते है कि भगवद गीता मात्र कर्म और सिर्फ कर्म को ही प्रतिपादित करती है कर्म ही प्रधान है इस प्रकार से पूजा की कोई आवश्यकता ही नही   

     जी  ऐसा कहना साफ गलत है  गीता में कई जगह  वर्णन किया है कि पूजा करे 
गीता के दूसरे अध्याय सांख्य योग 


भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्‌ ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥ (४४)

भावार्थ : जो मनुष्य इन्द्रियों के भोग तथा भौतिक ऎश्वर्य के प्रति आसक्त होने से ऎसी वस्तुओं से मोहग्रस्त हो जाते है, उन मनुष्यों में भगवान के प्रति दृड़-संकल्पित बुद्धि नहीं होती है। (४४)

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्‌ ॥ (४५)

भावार्थ : हे अर्जुन! वेदों में मुख्य रुप से प्रकृति के तीनों गुणों का वर्णन हुआ है इसलिए तू इन तीनों गुणों से ऊपर उठ, हर्ष-शोक आदि द्वंद्वों से रहित तथा सुरक्षा की सारी चिन्ताओं से मुक्त आत्म-परायण बन। (४५)




दृढ़ संकल्पित बनाने और आत्म परायण  बनाने का काम ही पूजा करती है       
आप मूर्ति पूजा कायिक पूजा वाचिक पूजा के  द्वारा  (सहायता) मन को प्रभु में लगाने का काम करते है(मानसिक पूजा करते है)  तभी  तो आपका मन  दृढ़ संकल्पित होगा  और दृढ़ सकल्पित मन वाला ही आत्म परायण बन सकता है



भगवद गीता तीसरा अध्याय 
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥ (७)
भावार्थ : हे अर्जुन! जो मनुष्य मन के द्वारा इन्द्रियों को वश में करने का प्रयत्न करता है और बिना किसी आसक्ति के कर्म-योग (निष्काम कर्म-योग) का आचरण करता है, वही सभी मनुष्यों में अति-उत्तम मनुष्य है। (७)



यहाँ भगवान निष्काम कर्म करने के लिए कह रहे है और पूजा  के अंत मे चाहे गणेश पूजा हो या सत्यनारायण   अन्ते में  न मम और ब्रह्मर्पणमस्तु इन दो  शब्दों से भी यही निष्काम भावना ही प्रगट होती है




तीसरा अध्याय
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाचप्रजापतिः ।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्‌ ॥ (१०)
भावार्थ : सृष्टि के प्रारम्भ में प्रजापति ब्रह्मा ने यज्ञ सहित देवताओं और मनुष्यों को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ द्वारा सुख-समृध्दि को प्राप्त करो और यह यज्ञ तुम लोगों की इष्ट (परमात्मा) संबन्धित कामना की पूर्ति करेगा। (१०)

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥ (११)
भावार्थ : इस यज्ञ द्वारा देवताओं की उन्नति करो और वे देवता तुम लोगों की उन्नति करेंगे, इस तरह एक-दूसरे की उन्नति करते हुए तुम लोग परम-कल्याण (परमात्मा) को प्राप्त हो जाओगे। (११)

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंक्ते स्तेन एव सः ॥ (१२)
भावार्थ : यज्ञ द्वारा उन्नति को प्राप्त देवता तुम लोगों की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करेंगे, किन्तु जो मनुष्य देवताओं द्वारा दिए हुए सुख-भोगों को उनको दिये बिना ही स्वयं भोगता है, उसे निश्चित-रूप से चोर समझना चाहिये। (१२)

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः ।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्‌ ॥ (१३)
भावार्थ : यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले भक्त सब पापों से मुक्त हो जाते हैं किन्तु अन्य लोग जो अपने इन्द्रिय-सुख के लिए ही भोजन पकाते हैं, वे तो पाप ही खाते हैं। (१३)

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः ।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥ (१४)
भावार्थ : सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वर्षा से होती है, वर्षा की उत्पत्ति यज्ञ सम्पन्न करने से होती है और यज्ञ की उत्पत्ति नियत-कर्म (वेद की आज्ञानुसार कर्म) के करने से होती है। (१४)

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्‌ ।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्‌ ॥ (१५)
भावार्थ : नियत कर्मों का विधान वेद में निहित है और वेद को शब्द-रूप से अविनाशी परमात्मा से साक्षात् उत्पन्न समझना चाहिये, इसलिये सर्वव्यापी परमात्मा ब्रह्म-रूप में यज्ञ में सदा स्थित रहता है। (१५)

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥ (१६)
भावार्थ : हे पृथापुत्र! जो मनुष्य जीवन में इस प्रकार वेदों द्वारा स्थापित यज्ञ-चक्र (नियत-कर्म) का अनुसरण नहीं करता हैं, वह निश्चय ही पापमय जीवन व्यतीत करता है। ऎसा मनुष्य इन्द्रियों की तुष्टि के लिये व्यर्थ ही जीता है। (१६)

(नियत-कर्म का निरुपण)
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥ (१७)
भावार्थ : परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही आनन्द प्राप्त कर लेता है तथा वह अपनी आत्मा मे ही पूर्ण-सन्तुष्ट रहता है, उसके लिए कोई नियत-कर्म (कर्तव्य) शेष नहीं रहता है। (१७)




यहां पर यज्ञ प्रतिपादन का सूत्र बताते हुए आत्म  सूत्र का वर्णन किया है आगे के अध्यायों में कई जगह प्रयास करने के लिए भी भगवान कहते है

अर्थात सभी लोग आत्मा  में हि आनन्द प्राप्त करे  तो  यह सब बिना प्रयाश तो हो नही सकता इसके लिए आपको प्रयास तो करना पड़ेगा 
इसी प्रयाश का नाम ही पूजा है 


पंडित जितेंद्र सोहन लाल शर्मा

ग्राम  रूवा पोस्ट सानिया
तहसील डीडवाना  जिला नागौर
राजस्थान

 कार्यरत  ठाणे महाराष्ट्र

सोमवार, 8 जनवरी 2018




महामृत्युंजय मंत्र" भगवान शिव का सबसे बड़ा मंत्र माना जाता है। हिन्दू धर्म में इस मंत्र को प्राण रक्षक और महामोक्ष मंत्र कहा जाता है। मान्यता है कि महामृत्युंजय मंत्र (Mahamrityunjay Mantra) से शिवजी को प्रसन्न करने वाले जातक से मृत्यु भी डरती है। इस मंत्र को सिद्ध करने वाला जातक निश्चित ही मोक्ष को प्राप्त करता है। यह मंत्र ऋषि मार्कंडेय द्वारा सबसे पहले पाया गया था।

महामृत्युंजय मंत्र 
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥


महामृत्युंजय मंत्र का अर्थ 
हम तीन नेत्र वाले भगवान शंकर की पूजा करते हैं जो प्रत्येक श्वास में जीवन शक्ति का संचार करते हैं, जो सम्पूर्ण जगत का पालन-पोषण अपनी शक्ति से कर रहे हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि जिस प्रकार एक ककड़ी अपनी बेल में पक जाने के उपरांत उस बेल-रूपी संसार के बंधन से मुक्त हो जाती है, उसी प्रकार हम भी इस संसार-रूपी बेल में पक जाने के उपरांत जन्म-मृत्यु के बंधनों से सदा के लिए मुक्त हो जाएं तथा आपके चरणों की अमृतधारा का पान करते हुए शरीर को त्यागकर आप ही में लीन हो जाएं और मोक्ष प्राप्त कर लें।


महामृत्युंजय मंत्र के फायदे
यह मंत्र व्यक्ति को ना ही केवल मृत्यु भय से मुक्ति दिला सकता है बल्कि उसकी अटल मृत्यु को भी टाल सकता है। कहा जाता है कि इस मंत्र का सवा लाख बार निरंतर जप करने से किसी भी बीमारी तथा अनिष्टकारी ग्रहों के दुष्प्रभाव को खत्म किया जा सकता है। इस मंत्र के जाप से आत्मा के कर्म शुद्ध हो जाते हैं और आयु और यश की प्राप्ति होती है। साथ ही यह मानसिक, भावनात्मक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए भी फायदेमंद है।
हामृत्युंजय मंत्र के जप व उपासना के तरीके आवश्यकता के अनुरूप होते हैं। काम्य उपासना के रूप में भी इस मंत्र का जप किया जाता है। जप के लिए अलग-अलग मंत्रों का प्रयोग होता है। मंत्र में दिए अक्षरों की संख्या से इनमें विविधता आती है। यह मंत्र निम्न प्रकार से है-
एकाक्षरी (1) मंत्र- 'हौं'। त्र्यक्षरी (3) मंत्र- 'ॐ जूं सः'। चतुराक्षरी (4) मंत्र- 'ॐ वं जूं सः'। नवाक्षरी (9) मंत्र- 'ॐ जूं सः पालय पालय'। दशाक्षरी (10) मंत्र- 'ॐ जूं सः मां पालय पालय'।
(स्वयं के लिए इस मंत्र का जप इसी तरह होगा जबकि किसी अन्य व्यक्ति के लिए यह जप किया जा रहा हो तो 'मां' के स्थान पर उस व्यक्ति का नाम लेना होगा)
वेदोक्त मंत्र- महामृत्युंजय का वेदोक्त मंत्र निम्नलिखित है-
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌ ॥
इस मंत्र में 32 शब्दों का प्रयोग हुआ है और इसी मंत्र में ॐ' लगा देने से 33 शब्द हो जाते हैं। इसे 'त्रयस्त्रिशाक्षरी या तैंतीस अक्षरी मंत्र कहते हैं। श्री वशिष्ठजी ने इन 33 शब्दों के 33 देवता अर्थात्‌ शक्तियाँ निश्चित की हैं जो कि निम्नलिखित हैं।
इस मंत्र में 8 वसु, 11 रुद्र, 12 आदित्य 1 प्रजापति तथा 1 वषट को माना है। मंत्र विचार : इस मंत्र में आए प्रत्येक शब्द को स्पष्ट करना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि शब्द ही मंत्र है और मंत्र ही शक्ति है। इस मंत्र में आया प्रत्येक शब्द अपने आप में एक संपूर्ण अर्थ लिए हुए होता है और देवादि का बोध कराता है।
शब्द बोधक शब्द बोधक 'त्र' ध्रुव वसु 'यम' अध्वर वसु 'ब' सोम वसु 'कम्‌' वरुण 'य' वायु 'ज' अग्नि 'म' शक्ति 'हे' प्रभास 'सु' वीरभद्र 'ग' शम्भु 'न्धिम' गिरीश 'पु' अजैक 'ष्टि' अहिर्बुध्न्य 'व' पिनाक 'र्ध' भवानी पति 'नम्‌' कापाली 'उ' दिकपति 'र्वा' स्थाणु 'रु' भर्ग 'क' धाता 'मि' अर्यमा 'व' मित्रादित्य 'ब' वरुणादित्य 'न्ध' अंशु 'नात' भगादित्य 'मृ' विवस्वान 'त्यो' इंद्रादित्य 'मु' पूषादिव्य 'क्षी' पर्जन्यादिव्य 'य' त्वष्टा 'मा' विष्णु 'ऽ' दिव्य 'मृ' प्रजापति 'तात' वषट
इसमें जो अनेक बोधक बताए गए हैं। ये बोधक देवताओं के नाम हैं।
शब्द की शक्ति- शब्द वही हैं और उनकी शक्ति निम्न प्रकार से है-
शब्द शक्ति शब्द शक्ति 'त्र' त्र्यम्बक, त्रि-शक्ति तथा त्रिनेत्र 'य' यम तथा यज्ञ 'म' मंगल 'ब' बालार्क तेज 'कं' काली का कल्याणकारी बीज 'य' यम तथा यज्ञ 'जा' जालंधरेश 'म' महाशक्ति 'हे' हाकिनो 'सु' सुगन्धि तथा सुर 'गं' गणपति का बीज 'ध' धूमावती का बीज 'म' महेश 'पु' पुण्डरीकाक्ष 'ष्टि' देह में स्थित षटकोण 'व' वाकिनी 'र्ध' धर्म 'नं' नंदी 'उ' उमा 'र्वा' शिव की बाईं शक्ति 'रु' रूप तथा आँसू 'क' कल्याणी 'व' वरुण 'बं' बंदी देवी 'ध' धंदा देवी 'मृ' मृत्युंजय 'त्यो' नित्येश 'क्षी' क्षेमंकरी 'य' यम तथा यज्ञ 'मा' माँग तथा मन्त्रेश 'मृ' मृत्युंजय 'तात' चरणों में स्पर्श
यह पूर्ण विवरण 'देवो भूत्वा देवं यजेत' के अनुसार पूर्णतः सत्य प्रमाणित हुआ है।
महामृत्युंजय के अलग-अलग मंत्र हैं। आप अपनी सुविधा के अनुसार जो भी मंत्र चाहें चुन लें और नित्य पाठ में या आवश्यकता के समय प्रयोग में लाएँ। मंत्र निम्नलिखित हैं-
तांत्रिक बीजोक्त मंत्र-ॐ भूः भुवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। स्वः भुवः भूः ॐ ॥
संजीवनी मंत्र अर्थात्‌ संजीवनी विद्या-ॐ ह्रौं जूं सः। ॐ भूर्भवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनांन्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। स्वः भुवः भूः ॐ। सः जूं ह्रौं ॐ।
महामृत्युंजय का प्रभावशाली मंत्र-ॐ ह्रौं जूं सः। ॐ भूः भुवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। स्वः भुवः भूः ॐ। सः जूं ह्रौं ॐ ॥
महामृत्युंजय मंत्र जाप में सावधानियाँ
महामृत्युंजय मंत्र का जप करना परम फलदायी है। लेकिन इस मंत्र के जप में कुछ सावधानियाँ रखना चाहिए जिससे कि इसका संपूर्ण लाभ प्राप्त हो सके और किसी भी प्रकार के अनिष्ट की संभावना न रहे।
अतः जप से पूर्व निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए-
1. जो भी मंत्र जपना हो उसका जप उच्चारण की शुद्धता से करें। 2. एक निश्चित संख्या में जप करें। पूर्व दिवस में जपे गए मंत्रों से, आगामी दिनों में कम मंत्रों का जप न करें। यदि चाहें तो अधिक जप सकते हैं। 3. मंत्र का उच्चारण होठों से बाहर नहीं आना चाहिए। यदि अभ्यास न हो तो धीमे स्वर में जप करें। 4. जप काल में धूप-दीप जलते रहना चाहिए। 5. रुद्राक्ष की माला पर ही जप करें। 6. माला को गोमुखी में रखें। जब तक जप की संख्या पूर्ण न हो, माला को गोमुखी से बाहर न निकालें। 7. जप काल में शिवजी की प्रतिमा, तस्वीर, शिवलिंग या महामृत्युंजय यंत्र पास में रखना अनिवार्य है। 8. महामृत्युंजय के सभी जप कुशा के आसन के ऊपर बैठकर करें। 9. जप काल में दुग्ध मिले जल से शिवजी का अभिषेक करते रहें या शिवलिंग पर चढ़ाते रहें। 10. महामृत्युंजय मंत्र के सभी प्रयोग पूर्व दिशा की तरफ मुख करके ही करें। 11. जिस स्थान पर जपादि का शुभारंभ हो, वहीं पर आगामी दिनों में भी जप करना चाहिए। 12. जपकाल में ध्यान पूरी तरह मंत्र में ही रहना चाहिए, मन को इधर-उधरन भटकाएँ। 13. जपकाल में आलस्य व उबासी को न आने दें। 14. मिथ्या बातें न करें। 15. जपकाल में स्त्री सेवन न करें। 16. जपकाल में मांसाहार त्याग दें।
कब करें महामृत्युंजय मंत्र जाप?
महामृत्युंजय मंत्र जपने से अकाल मृत्यु तो टलती ही है, आरोग्यता की भी प्राप्ति होती है। स्नान करते समय शरीर पर लोटे से पानी डालते वक्त इस मंत्र का जप करने से स्वास्थ्य-लाभ होता है।
दूध में निहारते हुए इस मंत्र का जप किया जाए और फिर वह दूध पी लिया जाए तो यौवन की सुरक्षा में भी सहायता मिलती है। साथ ही इस मंत्र का जप करने से बहुत सी बाधाएँ दूर होती हैं, अतः इस मंत्र का यथासंभव जप करना चाहिए। निम्नलिखित स्थितियों में इस मंत्र का जाप कराया जाता है-
(1) ज्योतिष के अनुसार यदि जन्म, मास, गोचर और दशा, अंतर्दशा, स्थूलदशा आदि में ग्रहपीड़ा होने का योग है। (2) किसी महारोग से कोई पीड़ित होने पर। (3) जमीन-जायदाद के बँटबारे की संभावना हो। (4) हैजा-प्लेग आदि महामारी से लोग मर रहे हों। (5) राज्य या संपदा के जाने का अंदेशा हो। (6) धन-हानि हो रही हो। (7) मेलापक में नाड़ीदोष, षडाष्टक आदि आता हो। (8) राजभय हो। (9) मन धार्मिक कार्यों से विमुख हो गया हो। (10) राष्ट्र का विभाजन हो गया हो। (11) मनुष्यों में परस्पर घोर क्लेश हो रहा हो। (12) त्रिदोषवश रोग हो रहे हों। महामृत्युंजय जप मंत्र
महामृत्युंजय मंत्र का जप करना परम फलदायी है। महामृत्युंजय मंत्र के जप व उपासना के तरीके आवश्यकता के अनुरूप होते हैं। काम्य उपासना के रूप में भी इस मंत्र का जप किया जाता है। जप के लिए अलग-अलग मंत्रों का प्रयोग होता है। यहाँ हमने आपकी सुविधा के लिए संस्कृत में जप विधि, विभिन्न यंत्र-मंत्र, जप में सावधानियाँ, स्तोत्र आदि उपलब्ध कराए हैं। इस प्रकार आप यहाँ इस अद्‍भुत जप के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
महामृत्युंजय जपविधि - (मूल संस्कृत में)
कृतनित्यक्रियो जपकर्ता स्वासने पांगमुख उदहमुखो वा उपविश्य धृतरुद्राक्षभस्मत्रिपुण्ड्रः। आचम्य। प्राणानायाम्य। देशकालौ संकीर्त्य मम वा यज्ञमानस्य अमुक कामनासिद्धयर्थ श्रीमहामृत्युंजय मंत्रस्य अमुक संख्यापरिमितं जपमहंकरिष्ये वा कारयिष्ये। ॥ इति प्रात्यहिकसंकल्पः॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॐ गुरवे नमः। ॐ गणपतये नमः। ॐ इष्टदेवतायै नमः। इति नत्वा यथोक्तविधिना भूतशुद्धिं प्राण प्रतिष्ठां च कुर्यात्‌।
भूतशुद्धिः
विनियोगः ॐ तत्सदद्येत्यादि मम अमुक प्रयोगसिद्धयर्थ भूतशुद्धिं प्राण प्रतिष्ठां च करिष्ये। ॐ आधारशक्ति कमलासनायनमः। इत्यासनं सम्पूज्य। पृथ्वीति मंत्रस्य। मेरुपृष्ठ ऋषि;, सुतलं छंदः कूर्मो देवता, आसने विनियोगः।
आसनः ॐ पृथ्वि त्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता। त्वं च धारय माँ देवि पवित्रं कुरु चासनम्‌। गन्धपुष्पादिना पृथ्वीं सम्पूज्य कमलासने भूतशुद्धिं कुर्यात्‌। अन्यत्र कामनाभेदेन। अन्यासनेऽपि कुर्यात्‌।
पादादिजानुपर्यंतं पृथ्वीस्थानं तच्चतुरस्त्रं पीतवर्ण ब्रह्मदैवतं वमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌। जान्वादिना भिपर्यन्तमसत्स्थानं तच्चार्द्धचंद्राकारं शुक्लवर्ण पद्मलांछितं विष्णुदैवतं लमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌।
नाभ्यादिकंठपर्यन्तमग्निस्थानं त्रिकोणाकारं रक्तवर्ण स्वस्तिकलान्छितं रुद्रदैवतं रमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌। कण्ठादि भूपर्यन्तं वायुस्थानं षट्कोणाकारं षड्बिंदुलान्छितं कृष्णवर्णमीश्वर दैवतं यमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌। भूमध्यादिब्रह्मरन्ध्रपर्यन्त माकाशस्थानं वृत्ताकारं ध्वजलांछितं सदाशिवदैवतं हमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌। एवं स्वशरीरे पंचमहाभूतानि ध्यात्वा प्रविलापनं कुर्यात्‌। यद्यथा-पृथ्वीमप्सु। अपोऽग्नौअग्निवायौ वायुमाकाशे। आकाशं तन्मात्राऽहंकारमहदात्मिकायाँ मातृकासंज्ञक शब्द ब्रह्मस्वरूपायो हृल्लेखार्द्धभूतायाँ प्रकृत्ति मायायाँ प्रविलापयामि, तथा त्रिवियाँ मायाँ च नित्यशुद्ध बुद्धमुक्तस्वभावे स्वात्मप्रकाश रूपसत्यज्ञानाँनन्तानन्दलक्षणे परकारणे परमार्थभूते परब्रह्मणि प्रविलापयामि। तच्च नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावं सच्चिदानन्दस्वरूपं परिपूर्ण ब्रह्मैवाहमस्मीति भावयेत्‌। एवं ध्यात्वा यथोक्तस्वरूपात्‌ ॐ कारात्मककात्‌ परब्रह्मणः सकाशात्‌ हृल्लेखार्द्धभूता सर्वमंत्रमयी मातृकासंज्ञिका शब्द ब्रह्मात्मिका महद्हंकारादिप-न्चतन्मात्रादिसमस्त प्रपंचकारणभूता प्रकृतिरूपा माया रज्जुसर्पवत्‌ विवर्त्तरूपेण प्रादुर्भूता इति ध्यात्वा। तस्या मायायाः सकाशात्‌ आकाशमुत्पन्नम्‌, आकाशाद्वासु;, वायोरग्निः, अग्नेरापः, अदभ्यः पृथ्वी समजायत इति ध्यात्वा। तेभ्यः पंचमहाभूतेभ्यः सकाशात्‌ स्वशरीरं तेजः पुंजात्मकं पुरुषार्थसाधनदेवयोग्यमुत्पन्नमिति ध्यात्वा। तस्मिन्‌ देहे सर्वात्मकं सर्वज्ञं सर्वशक्तिसंयुक्त समस्तदेवतामयं सच्चिदानंदस्वरूपं ब्रह्मात्मरूपेणानुप्रविष्टमिति भावयेत्‌ ॥ ॥ इति भूतशुद्धिः ॥
अथ प्राण-प्रतिष्ठा
विनियोगःअस्य श्रीप्राणप्रतिष्ठामंत्रस्य ब्रह्माविष्णुरुद्रा ऋषयः ऋग्यजुः सामानि छन्दांसि, परा प्राणशक्तिर्देवता, ॐ बीजम्‌, ह्रीं शक्तिः, क्रौं कीलकं प्राण-प्रतिष्ठापने विनियोगः। डं. कं खं गं घं नमो वाय्वग्निजलभूम्यात्मने हृदयाय नमः। ञं चं छं जं झं शब्द स्पर्श रूपरसगन्धात्मने शिरसे स्वाहा। णं टं ठं डं ढं श्रीत्रत्वड़ नयनजिह्वाघ्राणात्मने शिखायै वषट्। नं तं थं धं दं वाक्पाणिपादपायूपस्थात्मने कवचाय हुम्‌। मं पं फं भं बं वक्तव्यादानगमनविसर्गानन्दात्मने नेत्रत्रयाय वौषट्। शं यं रं लं हं षं क्षं सं बुद्धिमानाऽहंकार-चित्तात्मने अस्राय फट्। एवं करन्यासं कृत्वा ततो नाभितः पादपर्यन्तम्‌ आँ नमः। हृदयतो नाभिपर्यन्तं ह्रीं नमः। मूर्द्धा द्विहृदयपर्यन्तं क्रौं नमः। ततो हृदयकमले न्यसेत्‌। यं त्वगात्मने नमः वायुकोणे। रं रक्तात्मने नमः अग्निकोणे। लं मांसात्मने नमः पूर्वे। वं मेदसात्मने नमः पश्चिमे। शं अस्थ्यात्मने नमः नैऋत्ये। ओंषं शुक्रात्मने नमः उत्तरे। सं प्राणात्मने नमः दक्षिणे। हे जीवात्मने नमः मध्ये एवं हदयकमले।
अथ ध्यानम्‌रक्ताम्भास्थिपोतोल्लसदरुणसरोजाङ घ्रिरूढा कराब्जैः पाशं कोदण्डमिक्षूदभवमथगुणमप्यड़ कुशं पंचबाणान्‌। विभ्राणसृक्कपालं त्रिनयनलसिता पीनवक्षोरुहाढया देवी बालार्कवणां भवतुशु भकरो प्राणशक्तिः परा नः ॥ ॥ इति प्राण-प्रतिष्ठा ॥जप‍
अथ महामृत्युंजय जपविधि संकल्प
तत्र संध्योपासनादिनित्यकर्मानन्तरं भूतशुद्धिं प्राण प्रतिष्ठां च कृत्वा प्रतिज्ञासंकल्प कुर्यात ॐ तत्सदद्येत्यादि सर्वमुच्चार्य मासोत्तमे मासे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरे अमुकगोत्रो अमुकशर्मा/वर्मा/गुप्ता मम शरीरे ज्वरादि-रोगनिवृत्तिपूर्वकमायुरारोग्यलाभार्थं वा धनपुत्रयश सौख्यादिकिकामनासिद्धयर्थ श्रीमहामृत्युंजयदेव प्रीमिकामनया यथासंख्यापरिमितं महामृत्युंजयजपमहं करिष्ये।
विनियोग अस्य श्री महामृत्युंजयमंत्रस्य वशिष्ठ ऋषिः, अनुष्टुप्छन्दः श्री त्र्यम्बकरुद्रो देवता, श्री बीजम्‌, ह्रीं शक्तिः, मम अनीष्ठसहूयिर्थे जपे विनियोगः।
अथ यष्यादिन्यासः ॐ वसिष्ठऋषये नमः शिरसि। अनुष्ठुछन्दसे नमो मुखे। श्री त्र्यम्बकरुद्र देवतायै नमो हृदि। श्री बीजाय नमोगुह्ये। ह्रीं शक्तये नमोः पादयोः।
॥ इति यष्यादिन्यासः ॥
अथ करन्यासः
ॐ ह्रीं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः त्र्यम्बकं ॐ नमो भगवते रुद्रायं शूलपाणये स्वाहा अंगुष्ठाभ्यं नमः।
ॐ ह्रीं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः यजामहे ॐ नमो भगवते रुद्राय अमृतमूर्तये माँ जीवय तर्जनीभ्याँ नमः।
ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः सुगन्धिम्पुष्टिवर्द्धनम्‌ ओं नमो भगवते रुद्राय चन्द्रशिरसे जटिने स्वाहा मध्यामाभ्याँ वषट्।
ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः उर्वारुकमिव बन्धनात्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय त्रिपुरान्तकाय हां ह्रीं अनामिकाभ्याँ हुम्‌।
ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः मृत्योर्मुक्षीय ॐ नमो भगवते रुद्राय त्रिलोचनाय ऋग्यजुः साममन्त्राय कनिष्ठिकाभ्याँ वौषट्।
ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः मामृताम्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय अग्निवयाय ज्वल ज्वल माँ रक्ष रक्ष अघारास्त्राय करतलकरपृष्ठाभ्याँ फट्।
॥ इति करन्यासः ॥ अथांगन्यासः ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः त्र्यम्बकं ॐ नमो भगवते रुद्राय शूलपाणये स्वाहा हृदयाय नमः।
ॐ ह्रौं ओं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः यजामहे ॐ नमो भगवते रुद्राय अमृतमूर्तये माँ जीवय शिरसे स्वाहा।
ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः सुगन्धिम्पुष्टिवर्द्धनम्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय चंद्रशिरसे जटिने स्वाहा शिखायै वषट्।
ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः उर्वारुकमिव बन्धनात्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय त्रिपुरांतकाय ह्रां ह्रां कवचाय हुम्‌।
ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः मृत्यार्मुक्षीय ॐ नमो भगवते रुद्राय त्रिलोचनाय ऋग्यजु साममंत्रयाय नेत्रत्रयाय वौषट्।
ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः मामृतात्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय अग्नित्रयाय ज्वल ज्वल माँ रक्ष रक्ष अघोरास्त्राय फट्।
॥ इत्यंगन्यासः ॥
अथाक्षरन्यासः त्र्यं नमः दक्षिणचरणाग्रे। बं नमः, कं नमः, यं नमः, जां नमः दक्षिणचरणसन्धिचतुष्केषु। मं नमः वामचरणाग्रे। हें नमः, सुं नमः, गं नमः, धिं नम, वामचरणसन्धिचतुष्केषु। पुं नमः, गुह्ये। ष्टिं नमः, आधारे। वं नमः, जठरे। र्द्धं नमः, हृदये। नं नमः, कण्ठे। उं नमः, दक्षिणकराग्रे। वां नमः, रुं नमः, कं नमः, मिं नमः, दक्षिणकरसन्धिचतुष्केषु। वं नमः, बामकराग्रे। बं नमः, धं नमः, नां नमः, मृं नमः वामकरसन्धिचतुष्केषु। त्यों नमः, वदने। मुं नमः, ओष्ठयोः। क्षीं नमः, घ्राणयोः। यं नमः, दृशोः। माँ नमः श्रवणयोः। मृं नमः भ्रवोः। तां नमः, शिरसि। ॥ इत्यक्षरन्यास ॥ अथ पदन्यासः त्र्यम्बकं शरसि। यजामहे भ्रुवोः। सुगन्धिं दृशोः। पुष्टिवर्धनं मुखे। उर्वारुकं कण्ठे। मिव हृदये। बन्धनात्‌ उदरे। मृत्योः गुह्ये। मुक्षय उर्वों:। माँ जान्वोः। अमृतात्‌ पादयोः।
॥ इति पदन्यास ॥
मृत्युंजयध्यानम्‌ हस्ताभ्याँ कलशद्वयामृतसैराप्लावयन्तं शिरो, द्वाभ्याँ तौ दधतं मृगाक्षवलये द्वाभ्याँ वहन्तं परम्‌।
अंकन्यस्तकरद्वयामृतघटं कैलासकांतं शिवं, स्वच्छाम्भोगतं नवेन्दुमुकुटाभातं त्रिनेत्रभजे ॥
मृत्युंजय महादेव त्राहि माँ शरणागतम्‌, जन्ममृत्युजरारोगैः पीड़ित कर्मबन्धनैः ॥
तावकस्त्वद्गतप्राणस्त्वच्चित्तोऽहं सदा मृड, इति विज्ञाप्य देवेशं जपेन्मृत्युंजय मनुम्‌ ॥
अथ बृहन्मन्त्रः
ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूः भुवः स्वः। त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम्‌। उर्व्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्‌। स्वः भुवः भू ॐ। सः जूं ह्रौं ॐ ॥
समर्पण एतद यथासंख्यं जपित्वा पुनर्न्यासं कृत्वा जपं भगन्महामृत्युंजयदेवताय समर्पयेत।
गुह्यातिगुह्यगोपता त्व गृहाणास्मत्कृतं जपम्‌। सिद्धिर्भवतु मे देव त्वत्प्रसादान्महेश्वर ॥

॥ इति महामृत्युंजय जपविधिः ॥

*पूजा क्या है*

*पूजा क्या है*
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जिस प्रकार आपके घर में कोई मेहमान आ जाए उसकी मेहमानवाजी हम किस प्रकार करते हैं उसी प्रकार से भगवान का आवाहन करके उनकी पंचोपचार दशोपचार षोडशोपचार मेहमान नवाजी करना उसका नाम ही पूजा है☸☸☸☸

पंचोपचार
     कोई पांच प्रकार से की जाने वाली पूजा पंचोपचार
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दशोपचार 

10 चीजे भगवान को अर्पण करना🎄🎄🎄

षोडशोपचार

16 प्रकार की प्रकार से पूजा करना 



जिसके अंतर्गत ध्यान आवाहन क्षमा प्रार्थना भी है

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पूजा तीन प्रकार की होती है

1👉🏻 कायिक 
2👉🏻वाचिक
3👉🏻 मानसिक

1  कायिक 
      शरीर से की जाने वाली पूजा   भगवान के किसी भी प्रतिमा पर पत्र पुष्प फल आदि जो भी अपने हाथों से चढ़ाते हैं या किसी की सेवा करते हैं वही कायिक पूजा है


2 वाचिक  
     जो स्तोत्र चालीसा आदि का पाठ करते हैं या भगवान का गुणगान करते हैं  महिमा का वर्णन करते हैं शब्द मात्र से की जाने वाली स्तुति ही वाचिक पूजा है

3 मानसिक
     मन से भगवान का स्मरण करते हुए भगवान को पत्र पुष्प आदि अर्पित करना ही मानसिक पूजा है
 भगवान मेरे सामने बैठे हैं स्नान करा रहा हूं वस्त्र पहना रहा हूं खाना खिला रहा हूं दीपक दिखा रहा हूं मन में इस प्रकार की भावना करना ही मानसिक पूजा है


       वास्तव में तो भगवान की तरफ एक कदम बढ़ाने का नाम पूजा है

 लोग पंडितजी से सिर्फ पूजा तो कराते हैं 
परन्तु उनका ध्यान नही रहता है पूजा में 
 
जो पण्डितजी कहे वही चढ़ा देते है उसके अर्थ नही मालूम करते तो इस प्रकार के पूजा में कायिक पूजा और वाचिक पूजा तो हुई परन्तु मानसिक पूजा नही हुई  जो यजमान कर रहा है वह कायिक पूजा हुई जो पंडित जी मंत्रों का उच्चारण कर रहे हैं वह वाचिक पूजा हुई मानसिक किसी भी तरीके से नहीं हुई

कायिक वाचिक मानसिक यह तीनों जब तक साथ में नहीं चलेगी तब तक उस पूजा का फल संपूर्ण तरीके से नहीं मिल सकता




तुलसी अपने ईश को रीझ भजो या खीज !
उल्टा सुलटा निपजसी ज्यो खेतों में बीज!!

भगवद  प्रार्थना कभी भी निष्फल नहीं होती आज नहीं तो कल जरूरी फलदाई होगी परंतु कायिक वाचिक मानसिक इस प्रकार से की जाए तो बहुत ही बेहतर हो सकता है
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      जय श्री कृष्णा
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