बुधवार, 22 फ़रवरी 2017

देवी रहस्य

 ॐ त्रिगुणा तामसी देवी सात्त्विकी या त्रिधोदिता।
सा शर्वा चण्डिका दुर्गा भद्रा भगवतीर्यते॥1॥

योगनिद्रा हरेरुक्ता महाकाली तमोगुणा।
मधुकैटभनाशार्थ यां तुष्टावाम्बुजासन:॥2॥

दशवक्त्रा दशभुजा दशपादाञ्जनप्रभा।
विशालया राजमाना त्रिंशल्लोचनमालया॥3॥

स्फुरद्दशनदंष्ट्रा सा भीमरूपापि भूमिप।
रूपसौभाग्यकान्तीनां सा प्रतिष्ठा महाश्रिय:॥4॥

खड्गबाणगदाशूलचक्रशङ्खभुशुण्डिभृत्।
परिघं कार्मुकं शीर्ष निश्च्योतद्रुधिरं दधौ॥5॥

एषा सा वैष्णवी माया महाकाली दुरत्यया।
आराधिता वशीकुर्यात् पूजाकर्तुश्चराचरम्॥6॥

सर्वदेवशरीरेभ्यो याऽऽविर्भूतामितप्रभा।
त्रिगुणा सा महालक्ष्मी: साक्षान्महिषमर्दिनी॥7॥

श्वेतानना नीलभुजा सुश्वेतस्तनमण्डला।
रक्त मध्या रक्त पादा नीलजङ्घोरुरुन्मदा॥8॥

सुचित्रजघना चित्रमाल्याम्बरविभूषणा।
चित्रानुलेपना कान्तिरूपसौभाग्यशालिनी॥9॥

अष्टादशभुजा पूज्या सा सहस्त्रभुजा सती।
आयुधान्यत्र वक्ष्यन्ते दक्षिणाध:करक्रमात्॥10॥

अक्षमाला च कमलं बाणोऽसि: कुलिशं गदा।
चक्रं त्रिशूलं परशु: शङ्खो घण्टा च पाशक:॥11॥

शक्तिर्दण्डश्चर्म चापं पानपात्रं कमण्डलु:।
अलंकृतभुजामेभिरायुधै: कमलासनाम्॥12॥

सर्वदेवमयीमीशां महालक्ष्मीमियां नृप।
पूजयेत्सर्वलोकानां स देवानां प्रभुर्भवेत्॥13॥

गौरीदेहात्समुद्भूता या सत्त्‍‌वैकगुणाश्रया।
साक्षात्सरस्वती प्रोक्ता शुम्भासुरनिबर्हिणी॥14॥

दधौ चाष्टभुजा बाणमुसले शूलचक्रभृत्।
शङ्खं घण्टां लाङ्गलं च कार्मुकं वसुधाधिप॥15॥

एषा सम्पूजिता भक्त्या सर्वज्ञत्वं प्रयच्छति।
निशुम्भमथिनी देवी शुम्भासुरनिबर्हिणी॥16॥

इत्युक्तानि स्वरूपाणि मूर्तीनां तव पार्थिव।
उपासनं जगन्मातु: पृथगासां निशामय॥17॥

महालक्ष्मीर्यदा पूज्या महाकाली सरस्वती।
दक्षिणोत्तरयो: पूज्ये पृष्ठतो मिथुनत्रयम्॥18॥

विरञ्चि: स्वरया मध्ये रुद्रो गौर्या च दक्षिणे।
वामे लक्ष्म्या हृषीकेश: पुरतो देवतात्रयम्॥19॥

अष्टादशभुजा मध्ये वामे चास्या दशानना।
दक्षिणेऽष्टभुजा लक्ष्मीर्महतीति समर्चयेत्॥20॥

अष्टादशभुजा चैषा यदा पूज्या नराधिप।
दशानना चाष्टभुजा दक्षिणोत्तरयोस्तदा॥21॥

कालमृत्यू च सम्पूज्यौ सर्वारिष्टप्रशान्तये।
यदा चाष्टभुजा पूज्या शुम्भासुरनिबर्हिणी॥22॥

नवास्या: शक्त य: पूज्यास्तदा रुद्रविनायकौ।
नमो देव्या इति स्तोत्रैर्महालक्ष्मीं समर्चयेत्॥23॥

अवतारत्रयार्चायां स्तोत्रमन्त्रास्तदाश्रया:।
अष्टादशभुजा सैव पूज्या महिषमर्दिनी॥24॥

महालक्ष्मीर्महाकाली सैव प्रोक्ता सरस्वती।
ईश्वरी पुण्यपापानां सर्वलोकमहेश्वरी॥25॥

महिषान्तकरी येन पूजिता स जगत्प्रभु:।
पूजयेज्जगतां धात्रीं चण्डिकां भक्त वत्सलाम्॥26॥

अघ्र्यादिभिरलंकारैर्गन्धपुष्पैस्तथाक्षतै:। धू
पैर्दीपैश्च नैवेद्यैर्नानाभक्ष्यसमन्वितै:॥27॥

रुधिराक्ते न बलिना मांसेन सुरया नृप।
(बलिमांसादिपूजेयं विप्रवज्र्या मयेरिता॥

तेषां किल सुरामांसैर्नोक्ता पूजा नृप क्वचित्।)
प्रणामाचमनीयेन चन्दनेन सुगन्धिना॥28॥

सकर्पूरैश्च ताम्बूलैर्भक्ति भावसमन्वितै:।
वामभागेऽग्रतो देव्याश्छिन्नशीर्ष महासुरम्॥29॥

पूजयेन्महिषं येन प्राप्तं सायुज्यमीशया।
दक्षिणे पुरत: सिंहं समग्रं धर्ममीश्वरम्॥30॥

वाहनं पूजयेद्देव्या धृतं येन चराचरम्।
कुर्याच्च स्तवनं धीमांस्तस्या एकाग्रमानस:॥31॥

तत: कृताञ्जलिर्भूत्वा स्तुवीत चरितैरिमै:।
एकेन वा मध्यमेन नैकेनेतरयोरिह॥32॥

चरितार्ध तु न जपेज्जपञिछद्रमवापनुयात्।
प्रदक्षिणानमस्कारान् कृत्वा मूर्ध्नि कृताञ्जलि:॥33॥

क्षमापयेज्जगद्धात्रीं मुहुर्मुहुरतन्द्रित:।
प्रतिश्लोकं च जुहुयात्पायसं तिलसर्पिषा॥34॥

जुहुयात्स्तोत्रमन्त्रैर्वा चण्डिकायै शुभं हवि:।
भूयो नामपदैर्देवीं पूजयेत्सुसमाहित:॥35॥

प्रयत: प्राञ्जलि: प्रह्व: प्रणम्यारोप्य चात्मनि।
सुचिरं भावयेदीशां चण्डिकां तन्मयो भवेत्॥36॥

एवं य: पूजयेद्भक्त्या प्रत्यहं परमेश्वरीम्।
भुक्त्वा भोगान् यथाकामं देवीसायुज्यमापनुयात्॥37॥

यो न पूजयते नित्यं चण्डिकां भक्त वत्सलाम्।
भस्मीकृत्यास्य पुण्यानि निर्दहेत्परमेश्वरी॥38॥

तस्मात्पूजय भूपाल सर्वलोकमहेश्वरीम्।
यथोक्ते न विधानेन चण्डिकां सुखमाप्स्यसि॥38॥ 

अर्थ :- ऋषि कहते हैं- राजन्! पहले जिन सत्त्‍‌वप्रधाना त्रिगुणामयी महालक्ष्मी के तामसी आदि भेद से तीन स्वरूप बतलाये गये, वे ही शर्वा, चण्डिका, दुर्गा, भद्रा और भगवती आदि अनेक नामों से कही जाती हैं॥1॥ तमोगुणमयी महाकाली भगवान् विष्णु की योगनिद्रा कही गयी हैं। मधु और कैटभ का नाश करने के लिये ब्रह्माजी ने जिनकी स्तुति की थी, उन्हीं का नाम महाकाली है॥2॥ उनके दस मुख, दस भुजाएँ और दस पैर हैं। वे काजल के समान काले रंग की हैं अथा तीस नेत्रों की विशाल पंक्ति से सुशोभित होती हैं॥3॥ भूपाल! उनके दाँत और दाढें चमकती रहती हैं। यद्यपि उनका रूप भयंकर है, तथापि वे रूप, सौभाग्य, कान्ति एवं महती सम्पदा की अधिष्ठान (प्राप्तिस्थान) हैं॥4॥ वे अपने हाथों में खड्ग, बाण, गदा, शूल, चक्र, शङ्ख, भुशुण्डि, परिघ, धनुष तथा जिससे रक्त चूता रहता है, ऐसा कटा हुआ मस्तक धारण करती हैं॥5॥ ये महाकाली भगवान् विष्णु की दुस्तर माया हैं। आराधना करने पर ये चराचर जगत् को अपने उपासक के अधीन कर देती हैं॥6॥

सम्पूर्ण देवताओं के अङ्गों से जिनका प्रादुर्भाव हुआ था, वे अनन्त कान्ति से युक्त साक्षात् महालक्ष्मी हैं। उन्हें ही त्रिगुणमयी प्रकृति कहते हैं तथा वे ही महिषासुर का मर्दन करने वाली हैं॥7॥ उनका मुख गोरा, भुजाएँ श्याम, स्तनमण्डल अत्यन्त श्वेत, कटिभाग और चरण लाल तथा जङ्घा और पिंडली नीले रंग की हैं। अजेय होने के कारण उनको अपने शौर्य का अभिमान है॥8॥ कटिके आगे का भाग बहुरंगे वस्त्र से आच्छादित होने के कारण अत्यन्त सुन्दर एवं विचित्र दिखायी देता है। उनकी माला, वस्त्र, आभूषण तथा अङ्गराग सभी विचित्र हैं। वे कान्ति, रूप और सौभाग्य से सुशोभित हैं॥9॥ यद्यपि उनकी हजारों भुजाएँ हैं, तथापि उन्हें अठारह भुजाओं से युक्त मानकर उनकी पूजा करनी चाहिये। अब उनके दाहिनी ओर के निचले हाथों से लेकर बायीं ओर के निचले हाथों तक में क्रमश: जो अस्त्र हैं, उनका वर्णन किया जाता है॥10॥ अक्षमाला, कमल, बाण, खड्ग, वज्र, गदा, चक्र, त्रिशूल, परशु, शङ्ख, घण्टा, पाश, शक्ति दण्ड, चर्म (ढाल), धनुष, पानपात्र और कमण्डलु- इन आयुधों से उनकी भुजाएँ विभूषित हैं। वे कमल के आसन पर विराजमान हैं, सर्वदेवमयी हैं तथा सबकी ईश्वरी हैं। राजन्! जो इन महालक्ष्मी देवी का पूजन करता है, वह सब लोकों तथा देवताओं का भी स्वामी होता है॥11-13॥

जो एकमात्र सत्त्‍‌वगुण के आश्रित हो पार्वतीजी के शरीर से प्रकट हुई थीं तथा जिन्होंने शुम्भ नामक दैत्य का संहार किया था, वे साक्षात् सरस्वती कही गयी हैं॥14॥ पृथ्वीपते! उनके आठ भुजाएँ हैं तथा वे अपने हाथों में क्रमश: बाण, मुसल, शूल, चक्र, शङ्ख, घण्टा, हल एवं धनुष धारण करती हैं॥15॥ ये सरस्वती देवी, जो निशुम्भ का मर्दन तथा शुम्भासुर का संहार करने वाली हैं, भक्ति पूर्वक पूजित होने पर सर्वज्ञता प्रदान करती हैं॥16॥ राजन! इस प्रकार तुमसे महाकाली आदि तीनों मूर्तियों के स्वरूप बतलाये, अब जगन्माता महालक्ष्मी की तथा इन महाकाली आदि तीनों मूर्तियों की पृथक्-पृथक् उपासना श्रवण करो॥17॥ जब महालक्ष्मी की पूजा करनी हो, तब उन्हें मध्य में स्थापित करके उनके दक्षिण और वाम भाग में क्रमश: महाकाली और महासरस्वती का पूजन करना चाहिये और पृष्ठ भाग में तीनों युगल देवताओं की पूजा करनी चाहिये॥18॥ महालक्ष्मी के ठीक पीछे मध्य भाग में सरस्वती के साथ ब्रह्मा का पूजन करे। उनके दक्षिण भाग में गौरी के साथ रुद्र की पूजा करे तथा वामभाग में लक्ष्मी सहित विष्णु का पूजन करे। महालक्ष्मी आदि तीनों देवियों के सामने निमनङ्कित तीन देवियों की भी पूजा करनी चाहिये॥19॥ मध्यस्थ महालक्ष्मी के आगे मध्यभाग में अठारह भुजाओं वाली महालक्ष्मी का पूजन करे। उनके वामभाग में दस मुखों वाली महाकाली का तथा दक्षिणभाग में आठ भुजाओं वाली महासरस्वती का पूजन करे॥20॥ राजन्! जब केवल अठारह भुजाओं वाली महालक्ष्मी का अथवा दशमुखी काली का अष्टभुजा सरस्वती का पूजन करना हो, तब सब अरिष्टों की शान्ति के लिये इनके दक्षिणभाग में काल की और वामभाग में मृत्यु की भी भलीभाँति पूजा करनी चाहिये। जब शुम्भासुर का संहार करने वाली अष्टभुजा देवी की पूजा करनी हो, तब उनके साथ उनकी नौ शक्तियों का और दक्षिण भाग में रुद्र एवं वामभाग में गणेशजी का भी पूजन करना चाहिये (ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, नारसिंही, ऐन्द्री, शिवदूती तथा चामुण्डा-ये नौ शक्ति याँ हैं)। नमो देव्यै.. इस स्तोत्र से महालक्ष्मी की पूजा करनी चाहिये॥21-23॥ तथा उनके तीन अवतारों की पूजा के समय उनके चरित्रों में जो स्तोत्र और मन्त्र आये हैं, उन्हीं का उपयोग करना चाहिये। अठारह भुजाओं वाली महिषासुरमर्दिनी महालक्ष्मी ही विशेषरूप से पूजनीय हैं; क्योंकि वे ही महालक्ष्मी, महाकाली तथा महासरस्वती कहलाती हैं। वे ही पुण्य पापों की अधीश्वरी तथा सम्पूर्ण लोकों की महेश्वरी हैं॥24-25॥ जिसने महिषासुर का अन्त करने वाली महालक्ष्मी की भक्ति पूर्वक आराधना की है, वही संसार का स्वामी है। अत: जगत् को धारण करने वाली भक्त वत्सला भगवती चण्डिका की अवश्य पूजा करनी चाहिये॥26॥ अ‌र्ध्य आदि से, आभूषणों से, गन्ध, पुष्प, अक्षत, धूप, दीप तथा नाना प्रकार के भक्ष्य पदार्थो से युक्त नैवेद्यों से, रक्त सिञ्चित बलि से, मांस से तथा मदिरा से भी देवी का पूजन होता है। (राजन्! बलि और मांस आदि से की जाने वाली पूजा ब्राह्मणों को छोडकर बतायी गयी है। उनके लिये मांस और मदिरा से कहीं भी पूजा का विधान नहीं है।) प्रणाम, आचमन के योग्य जल, सुगन्धित चन्दन, कपूर तथा ताम्बूल आदि सामग्रियों को भक्ति भाव से निवेदन करके देवी की पूजा करनी चाहिये। देवी के सामने बायें भाग में कटे मस्तकवाले महादैत्य महिषासुर का पूजन करना चाहिये, जिसने भगवती के साथ सायुज्य प्राप्त कर लिया। इसी प्रकार देवी के सामने दक्षिण भाग में उनके वाहन सिंह का पूजन करना चाहिये, जो सम्पूर्ण धर्म का प्रतीक एवं षड्विध ऐश्वर्य से युक्त है। उसी ने इस चराचर जगत् को धारण कर रखा है।

तदनन्तर बुद्धिमान् पुरुष एकाग्रचित हो देवी की स्तुति करे। फिर हाथ जोडकर तीनों पूर्वोक्त चरित्रों द्वारा भगवती का स्तवन करे। यदि कोई एक ही चरित्र से स्तुति करना चाहे तो केवल मध्यम चरित्र के पाठ से कर ले; किंतु प्रथम और उत्तर चरित्रों में से एक का पाठ न करे। आधे चरित्र का भी पाठ करना मना है। जो आधे चरित्र का पाठ करता है, उसका पाठ सफल नहीं होता। पाठ-समाप्ति के बाद साधक प्रदक्षिणा और नमस्कार कर तथा आलस्य छोडकर जगदम्बा के उद्देश्य से मस्तक पर हाथ जोडे और उनके बारम्बार त्रुटियों या अपराधों के लिये क्षमा प्रार्थना करे। सप्तशती का प्रत्येक श्लोक मन्त्ररूप है, उससे तिल और घृत मिली हुई खीर की आहुति दे॥27-34॥ अथवा सप्तशती में जो स्तोत्र आये हैं, उन्हीं के मन्त्रों से चण्डिका के लिये पवित्र हविष्य का हवन करे। हाम के पश्चात एकाग्रचित्त हो महालक्ष्मी देवी के नाम मन्त्रों को उच्चारण करते हुए पुन: उनकी पूजा करे॥35॥ तत्पश्चात् मन और इन्द्रियों को वश में रखते हुए हाथ जोड विनीत भाव से देवी को प्रणाम करे और अन्त:करण में स्थापित करके उन सर्वेश्वरी चण्डिका देवी का देरतक चिन्तन करे। चिन्तन करते-करते उन्हीं में तन्मय हो जाय॥36॥ इस प्रकार जो मनुष्य प्रतिदिन भक्ति पूर्वक परमेश्वरी का पूजन करता है, वह मनोवाञ्छित भोगों को भोगकर अन्त में देवी का सायुज्य प्राप्त करता है॥37॥ जो भक्त वत्सला चण्डी का प्रतिदिन पूजन नहीं करता, भगवती परमेश्वरी उसके पुण्यों को जलाकर भस्म कर देती हैं॥38॥ इसलिये राजन्! तुम सर्वलोकमहेश्वरी चण्डिका का शास्त्रोक्त विधि से पूजन करो। उससे तुम्हें सुख मिलेगा॥39॥

मंगलवार, 21 फ़रवरी 2017

गायत्री मंत्र

गायत्री मंत्र ॐ भूर्भुवः स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात् उपरोक्त गायत्री मंत्र सभी जानते है ईसी तरह हर ग्रह का अलग गायत्री मंत्र है जो इस ब्लॉग में आपके समकक्ष लिख रहा हूँ। आशा करता हूँ आप सभी लाभ लेंगे 

सोमवार, 20 फ़रवरी 2017

वशिष्ट कृत मृत संजीवन स्तोत्र

॥ मृतसञ्जीवनस्तोत्रम् ॥
एवमाराध्य गौरीशं देवं मृत्युञ्जयेश्वरम् ।
मृतसञ्जीवनं नाम्ना कवचं प्रजपेत्सदा ॥ १॥
सारात्सारतरं पुण्यं गुह्याद्गुह्यतरं शुभम् ।
महादेवस्य कवचं मृतसञ्जीवनाभिधम् ॥ २॥
नामकम् समाहितमना भूत्वा शृणुष्व कवचं शुभम् । शृत्वैतद्दिव्य कवचं रहस्यं कुरु सर्वदा ॥ ३॥
वराभयकरो यज्वा सर्वदेवनिषेवितः ।
मृत्युञ्जयो महादेवः प्राच्यां मां पातु सर्वदा ॥ ४॥
दधानः शक्तिमभयां त्रिमुखं षड्भुजः प्रभुः । सदाशिवोऽग्निरूपी मामाग्नेय्यां पातु सर्वदा ॥ ५॥
अष्टादशभुजोपेतो दण्डाभयकरो विभुः ।
यमरूपी महादेवो दक्षिणस्यां सदाऽवतु ॥ ६॥
खड्गाभयकरो धीरो रक्षोगणनिषेवितः ।
रक्षोरूपी महेशो मां नैरृत्यां सर्वदाऽवतु ॥ ७॥
पाशाभयभुजः सर्वरत्नाकरनिषेवितः ।
वरूणात्मा महादेवः पश्चिमे मां सदाऽवतु ॥ ८॥
गदाभयकरः प्राणनायकः सर्वदागतिः ।
वायव्यां मारुतात्मा मां शङ्करः पातु सर्वदा ॥ ९॥
शङ्खाभयकरस्थो मां नायकः परमेश्वरः । सर्वात्मान्तरदिग्भागे पातु मां शङ्करः प्रभुः ॥ १०॥
शूलाभयकरः सर्वविद्यानमधिनायकः ।
ईशानात्मा तथैशान्यां पातु मां परमेश्वरः ॥ ११॥
ऊर्ध्वभागे ब्रह्मरूपी विश्वात्माऽधः सदाऽवतु ।
शिरो मे शङ्करः पातु ललाटं चन्द्रशेखरः ॥ १२॥
भ्रूमध्यं सर्वलोकेशस्त्रिनेत्रो लोचनेऽवतु ।
भ्रूयुग्मं गिरिशः पातु कर्णौ पातु महेश्वरः ॥ १३॥
नासिकां मे महादेव ओष्ठौ पातु वृषध्वजः ।
जिह्वां मे दक्षिणामूर्तिर्दन्तान्मे गिरिशोऽवतु ॥ १४॥
मृतुय्ञ्जयो मुखं पातु कण्ठं मे नागभूषणः ।
पिनाकी मत्करौ पातु त्रिशूली हृदयं मम ॥ १५॥
पञ्चवक्त्रः स्तनौ पातु उदरं जगदीश्वरः ।
नाभिं पातु विरूपाक्षः पार्श्वौ मे पार्वतीपतिः ॥ १६॥
कटिद्वयं गिरीशो मे पृष्ठं मे प्रमथाधिपः ।
गुह्यं महेश्वरः पातु ममोरू पातु भैरवः ॥ १७॥
जानुनी मे जगद्धर्ता जङ्घे मे जगदम्बिका ।
पादौ मे सततं पातु लोकवन्द्यः सदाशिवः ॥ १८॥
गिरिशः पातु मे भार्यां भवः पातु सुतान्मम ।
मृत्युञ्जयो ममायुष्यं चित्तं मे गणनायकः ॥ १९॥
सर्वाङ्गं मे सदा पातु कालकालः सदाशिवः ।
एतत्ते कवचं पुण्यं देवतानां च दुर्लभम् ॥ २०॥
मृतसञ्जीवनं नाम्ना महादेवेन कीर्तितम् ।
सहस्रावर्तनं चास्य पुरश्चरणमीरितम् ॥ २१॥
यः पठेच्छृणुयान्नित्यं श्रावयेत्सुसमाहितः ।
स कालमृत्युं निर्जित्य सदायुष्यं समश्नुते ॥ २२॥
हस्तेन वा यदा स्पृष्ट्वा मृतं सञ्जीवयत्यसौ ।
आधयो व्याधयस्तस्य न भवन्ति कदाचन ॥ २३॥
कालमृत्युमपि प्राप्तमसौ जयति सर्वदा ।
अणिमादिगुणैश्वर्यं लभते मानवोत्तमः ॥ २४॥
युद्धारम्भे पठित्वेदमष्टाविंशतिवारकम् ।
युद्धमध्ये स्थितः शत्रुः सद्यः सर्वैर्न दृश्यते ॥ २५॥
न ब्रह्मादीनि चास्त्राणि क्षयं कुर्वन्ति तस्य वै ।
विजयं लभते देवयुद्धमध्येऽपि सर्वदा ॥ २६॥
प्रातरुत्थाय सततं यः पठेत्कवचं शुभम् ।
अक्षय्यं लभते सौख्यमिह लोके परत्र च ॥ २७॥
सर्वव्याधिविनिर्मृक्तः सर्वरोगविवर्जितः ।
अजरामरणो भूत्वा सदा षोडशवार्षिकः ॥ २८॥
विचरत्यखिलाँलोकान्प्राप्य भोगांश्च दुर्लभान् ।
तस्मादिदं महागोप्यं कवचं समुदाहृतम् ॥ २९॥
मृतसञ्जीवनं नाम्ना देवतैरपि दुर्लभम् ॥ ३०॥
॥ इति श्रीवसिष्ठप्रणितं मृतसञ्जीवन स्तोत्रम् सम्पूर्णम् ॥

भवानी अष्टक

श्री भवानी अष्टक -

न तातो न माता न बन्धुर्न दाता न पुत्रो न पुत्री न भृत्यो न भर्ता ।
न जाया न विद्या न वृत्तिर्ममैव गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानी ॥ १ ॥
भवाब्धावपारे महादु:ख्भीरू पपात प्रकामी प्रलोभी प्रमत्त: ।
कुसंसारपाशप्रबध्द: सदाहं गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानी ॥ २ ॥      
न् जानामि दानं न च ध्यानयोगम् न जानामि तन्त्रम् न च स्तोत्र स्तोत्रम्न्त्रम् ।
न जानामि पुजाम् न च न्यासयोगम् गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानी ॥ ३ ॥
न जानामि पुण्यं न जानामि तिर्थम् न जानामि मुक्तिं लयं वा कदाचित् ।
न जानामि भक्तिं व्रतं वापि मातर्गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानी ॥ ४ ॥
कुकर्मी कुसड्गी कुबुध्दी: कुदास्: कुलाचारहीन्: कदाचारलीन्: ।
कुदृष्टी: कुवाक्यप्रबन्ध्: सदाहं गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानी ॥ ५ ॥
प्रजेशम् रमेशम् महेशम् सुरेशम् दिनेशम् निशीधेश्वरं वा कदाचित् ।
न जानामि चान्यत् सदाहं शरण्ये गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानी ॥ ६ ॥
विवादे विषादे प्रमादे प्रवासे जले चानले पर्वते शत्रुमध्ये ।
अरण्ये शरण्ये सदा मां प्रपाहि गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानी ॥ ७ ॥
अनाथो दरिद्रो जरारोगयुक्तो महाक्षीणदीन: सदा जाङ्घवक्र: ।
विपत्तौ प्रविष्ट: प्रनष्ट: सदाहं गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानी ॥ ८ ॥
॥इति श्रीमदादिशंकराचार्य् विरचिता भवान्यष्टकं समाप्ता ॥
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शनिवार, 18 फ़रवरी 2017

अर्जुन कृत दुर्गा स्तवन

सभी बंधनों से छुटकारा दिलाता है श्री अर्जुनकृत श्री दुर्गास्तवन
पांडवों में सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर वीर प्रतापी अर्जुन केवल महायोद्धा ही नहीं था, वह महातपस्वी और मां का परमभक्त भी था। लेकिन भक्त अर्जुन का स्वरूप आम जन से गुप्त ही रहा। अर्जुन पर गुरु की पूर्ण कृपा रही है। गुरु कृपा के प्रताप से ही गांडीव धारण करने वाले हाथों में जप की माला आते देर नहीं लगती थी। अर्जुन ने भगवान शिव की आराधना कर उन्हें प्रसन्न कर उनसे पाशुपत अस्त्र आदि प्राप्त किए थे। उसी प्रकार उसने मां भगवती की उपासना से उन्हें धारण करने की शक्ति प्राप्त की थी। अर्जुन द्वारा प्रयोग किए गए इस गुप्त श्री दुर्गा स्तवन को भक्तगण गुरु आज्ञा से प्रयोग कर सकते हैं।
इस श्रीदुर्गा स्तवन के प्रयोग से सभी प्रकार के शत्रुओं का विनाश होता है। राजा, चोर, डाकू, सर्प, भूत प्रेतादि का भय नष्ट होता है। वाद विवाद में जय प्राप्त होती है। जेल आदि से व्यक्ति छूट जाता है और आरोग्य सौ वर्ष जीता हुआ धन धान्य से संपन्न रहता है। इस स्तवन की संपूर्ण विधि गुरुगम्य है।

श्री अर्जुनकृत श्रीदुर्गा स्तवन::-
विनियोग
अस्य श्रीभगवती दुर्गा स्तोत्र मन्त्रस्य श्रीकृष्णार्जुन स्वरूपी नर नारायणो ऋषि:, अनुष्टुप् छन्द, श्रीदुर्गा देवता, ह्रीं बीजं, ऐं शक्ति, श्रीं कीलकं, मम अभीष्ट सिद्ध्यर्थे जपे विनियोग:।
ऋष्यादिन्यास

ओम् श्रीकृष्णार्जुन स्वरूपी नर नारायणो ऋषिभ्यो नम: शिरसि।
ओम् अनुष्टुप् छन्दसे नम: मुखे।
ओम्श्रीदुर्गा देवतायै नम: हृदि।
ओम् ह्रीं बीजाय नम: गुह्ये।
ओम् ऐं शक्तयै नम: पादयो।
ओम् श्रीं कीलकाय नम: नाभौ।
मम अभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नम: सर्वांगे।

कर न्यास

ओम् ह्रां अंगुष्ठाभ्यां नम:।
ओम् ह्रीं तर्जनीभ्यां स्वाहा।
ओम् ह्रों मध्यमाभ्यां वषट्।
ओम् ह्रैं अनामिकाभ्यां हुम्।
ओम् ह्रूं कनिष्ठाभ्यां वौषट्।
ओम् ह्र: करतल करपृष्ठाभ्यां फट्।

अंग-न्यास

ओम् ह्रां हृदयाय नम:।
ओम् ह्रीं शिरसें स्वाहा।
ओम् ह्रूं शिखायै वषट्।
ओम् ह्रैं कवचायं हुम्।
ओम् ह्रौं नैत्र-त्रयाय वौषट्।
ओम् ह्र: अस्त्राय फट्।

ध्यान

सिंहस्था शशि-शेखरा मरकत-प्रख्या चतुर्भिर्भुजै:,
शंख चक्र-धनु:-शरांश्च दधती नेत्रैस्त्रिभि: शोभिता।
आमुक्तांगद-हार-कंकण-रणत्कांची-क्वणन् नूपुरा,
दुर्गा दुर्गति-हारिणी भवतु नो रत्नोल्लसत्कुण्डला।।

मानस पूजन
ओम् ह्रीं दुं दुर्गायै नम: लं पृथिव्यात्मकं गन्धं समर्पयामि।
ओम् ह्रीं दुं दुर्गायै नम: हं आकाशात्मकं पुष्पं समर्पयामि।
ओम् ह्रीं दुं दुर्गायै नम: यं वाय्वात्मकं धूपं घ्रापयामि।
ओम् ह्रीं दुं दुर्गायै नम: रं वह्न्यात्मकं दीपं दर्शयामि।
ओम् ह्रीं दुं दुर्गायै नम: वं अमृतात्मकं नैवेद्यं निवेदयामि।
ओम् ह्रीं दुं दुर्गायै नम: सं सर्वात्मकं ताम्बूलं समर्पयामि।
श्रीअर्जुन उवाच -
नमस्ते सिद्ध-सेनानि, आर्ये मन्दर-वासिनी,
कुमारी कालि कापालि, कपिले कृष्ण-पिंगले।।1।।
भद्र-कालि! नमस्तुभ्यं, महाकालि नमोऽस्तुते।
चण्डि चण्डे नमस्तुभ्यं, तारिणि वर-वर्णिनि।।2।।
कात्यायनि महा-भागे, करालि विजये जये,
शिखि पिच्छ-ध्वज-धरे, नानाभरण-भूषिते।।3।।
अटूट-शूल-प्रहरणे, खड्ग-खेटक-धारिणे,
गोपेन्द्रस्यानुजे ज्येष्ठे, नन्द-गोप-कुलोद्भवे।।4।।
महिषासृक्प्रिये नित्यं, कौशिकि पीत-वासिनि,
अट्टहासे कोक-मुखे, नमस्तेऽस्तु रण-प्रिये।।5।।
उमे शाकम्भरि श्वेते, कृष्णे कैटभ-नाशिनि,
हिरण्याक्षि विरूपाक्षि, सुधू्रप्ति नमोऽस्तु ते।।6।।
वेद-श्रुति-महा-पुण्ये, ब्रह्मïण्ये जात-वेदसि,
जम्बू-कटक-चैत्येषु, नित्यं सन्निहितालये।।7।।
त्वं ब्रह्मï-विद्यानां, महा-निद्रा च देहिनाम्।
स्कन्ध-मातर्भगवति, दुर्गे कान्तार-वासिनि।।8।।
स्वाहाकार: स्वधा चैव, कला काष्ठा सरस्वती।
सावित्री वेद-माता च, तथा वेदान्त उच्यते।।9।।
स्तुतासि त्वं महा-देवि विशुद्धेनान्तरात्मना।
जयो भवतु मे नित्यं, त्वत्प्रसादाद् रणाजिरे।।10।।
कान्तार-भय-दुर्गेषु, भक्तानां चालयेषु च।
नित्यं वससि पाताले, युद्धे जयसि दानवान्।।11।।
त्वं जम्भिनी मोहिनी च, माया ह्री: श्रीस्तथैव च।
सन्ध्या प्रभावती चैव, सावित्री जननी तथा।।12।।
तुष्टि: पुष्टिर्धृतिदीप्तिश्चन्द्रादित्य-विवर्धनी।
भूतिर्भूति-मतां संख्ये, वीक्ष्यसे सिद्ध-चारणै:।।13।।
।। फल-श्रुति ।।
य: इदं पठते स्तोत्रं, कल्यं उत्थाय मानव:।
यक्ष-रक्ष:-पिशाचेभ्यो, न भयं विद्यते सदा।।1।।
न चापि रिपवस्तेभ्य:, सर्पाद्या ये च दंष्टिï्रण:।
न भयं विद्यते तस्य, सदा राज-कुलादपि।।2।।
विवादे जयमाप्नोति, बद्धो मुच्येत बन्धनात्।
दुर्गं तरति चावश्यं, तथा चोरैर्विमुच्यते।।3।।
संग्रामे विजयेन्नित्यं, लक्ष्मीं प्राप्नोति केवलाम्।
आरोग्य-बल-सम्पन्नो, जीवेद् वर्ष-शतं तथा।।4।।