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अर्जुन कृत दुर्गा स्तवन

सभी बंधनों से छुटकारा दिलाता है श्री अर्जुनकृत श्री दुर्गास्तवन
पांडवों में सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर वीर प्रतापी अर्जुन केवल महायोद्धा ही नहीं था, वह महातपस्वी और मां का परमभक्त भी था। लेकिन भक्त अर्जुन का स्वरूप आम जन से गुप्त ही रहा। अर्जुन पर गुरु की पूर्ण कृपा रही है। गुरु कृपा के प्रताप से ही गांडीव धारण करने वाले हाथों में जप की माला आते देर नहीं लगती थी। अर्जुन ने भगवान शिव की आराधना कर उन्हें प्रसन्न कर उनसे पाशुपत अस्त्र आदि प्राप्त किए थे। उसी प्रकार उसने मां भगवती की उपासना से उन्हें धारण करने की शक्ति प्राप्त की थी। अर्जुन द्वारा प्रयोग किए गए इस गुप्त श्री दुर्गा स्तवन को भक्तगण गुरु आज्ञा से प्रयोग कर सकते हैं।
इस श्रीदुर्गा स्तवन के प्रयोग से सभी प्रकार के शत्रुओं का विनाश होता है। राजा, चोर, डाकू, सर्प, भूत प्रेतादि का भय नष्ट होता है। वाद विवाद में जय प्राप्त होती है। जेल आदि से व्यक्ति छूट जाता है और आरोग्य सौ वर्ष जीता हुआ धन धान्य से संपन्न रहता है। इस स्तवन की संपूर्ण विधि गुरुगम्य है।

श्री अर्जुनकृत श्रीदुर्गा स्तवन::-
विनियोग
अस्य श्रीभगवती दुर्गा स्तोत्र मन्त्रस्य श्रीकृष्णार्जुन स्वरूपी नर नारायणो ऋषि:, अनुष्टुप् छन्द, श्रीदुर्गा देवता, ह्रीं बीजं, ऐं शक्ति, श्रीं कीलकं, मम अभीष्ट सिद्ध्यर्थे जपे विनियोग:।
ऋष्यादिन्यास

ओम् श्रीकृष्णार्जुन स्वरूपी नर नारायणो ऋषिभ्यो नम: शिरसि।
ओम् अनुष्टुप् छन्दसे नम: मुखे।
ओम्श्रीदुर्गा देवतायै नम: हृदि।
ओम् ह्रीं बीजाय नम: गुह्ये।
ओम् ऐं शक्तयै नम: पादयो।
ओम् श्रीं कीलकाय नम: नाभौ।
मम अभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नम: सर्वांगे।

कर न्यास

ओम् ह्रां अंगुष्ठाभ्यां नम:।
ओम् ह्रीं तर्जनीभ्यां स्वाहा।
ओम् ह्रों मध्यमाभ्यां वषट्।
ओम् ह्रैं अनामिकाभ्यां हुम्।
ओम् ह्रूं कनिष्ठाभ्यां वौषट्।
ओम् ह्र: करतल करपृष्ठाभ्यां फट्।

अंग-न्यास

ओम् ह्रां हृदयाय नम:।
ओम् ह्रीं शिरसें स्वाहा।
ओम् ह्रूं शिखायै वषट्।
ओम् ह्रैं कवचायं हुम्।
ओम् ह्रौं नैत्र-त्रयाय वौषट्।
ओम् ह्र: अस्त्राय फट्।

ध्यान

सिंहस्था शशि-शेखरा मरकत-प्रख्या चतुर्भिर्भुजै:,
शंख चक्र-धनु:-शरांश्च दधती नेत्रैस्त्रिभि: शोभिता।
आमुक्तांगद-हार-कंकण-रणत्कांची-क्वणन् नूपुरा,
दुर्गा दुर्गति-हारिणी भवतु नो रत्नोल्लसत्कुण्डला।।

मानस पूजन
ओम् ह्रीं दुं दुर्गायै नम: लं पृथिव्यात्मकं गन्धं समर्पयामि।
ओम् ह्रीं दुं दुर्गायै नम: हं आकाशात्मकं पुष्पं समर्पयामि।
ओम् ह्रीं दुं दुर्गायै नम: यं वाय्वात्मकं धूपं घ्रापयामि।
ओम् ह्रीं दुं दुर्गायै नम: रं वह्न्यात्मकं दीपं दर्शयामि।
ओम् ह्रीं दुं दुर्गायै नम: वं अमृतात्मकं नैवेद्यं निवेदयामि।
ओम् ह्रीं दुं दुर्गायै नम: सं सर्वात्मकं ताम्बूलं समर्पयामि।
श्रीअर्जुन उवाच -
नमस्ते सिद्ध-सेनानि, आर्ये मन्दर-वासिनी,
कुमारी कालि कापालि, कपिले कृष्ण-पिंगले।।1।।
भद्र-कालि! नमस्तुभ्यं, महाकालि नमोऽस्तुते।
चण्डि चण्डे नमस्तुभ्यं, तारिणि वर-वर्णिनि।।2।।
कात्यायनि महा-भागे, करालि विजये जये,
शिखि पिच्छ-ध्वज-धरे, नानाभरण-भूषिते।।3।।
अटूट-शूल-प्रहरणे, खड्ग-खेटक-धारिणे,
गोपेन्द्रस्यानुजे ज्येष्ठे, नन्द-गोप-कुलोद्भवे।।4।।
महिषासृक्प्रिये नित्यं, कौशिकि पीत-वासिनि,
अट्टहासे कोक-मुखे, नमस्तेऽस्तु रण-प्रिये।।5।।
उमे शाकम्भरि श्वेते, कृष्णे कैटभ-नाशिनि,
हिरण्याक्षि विरूपाक्षि, सुधू्रप्ति नमोऽस्तु ते।।6।।
वेद-श्रुति-महा-पुण्ये, ब्रह्मïण्ये जात-वेदसि,
जम्बू-कटक-चैत्येषु, नित्यं सन्निहितालये।।7।।
त्वं ब्रह्मï-विद्यानां, महा-निद्रा च देहिनाम्।
स्कन्ध-मातर्भगवति, दुर्गे कान्तार-वासिनि।।8।।
स्वाहाकार: स्वधा चैव, कला काष्ठा सरस्वती।
सावित्री वेद-माता च, तथा वेदान्त उच्यते।।9।।
स्तुतासि त्वं महा-देवि विशुद्धेनान्तरात्मना।
जयो भवतु मे नित्यं, त्वत्प्रसादाद् रणाजिरे।।10।।
कान्तार-भय-दुर्गेषु, भक्तानां चालयेषु च।
नित्यं वससि पाताले, युद्धे जयसि दानवान्।।11।।
त्वं जम्भिनी मोहिनी च, माया ह्री: श्रीस्तथैव च।
सन्ध्या प्रभावती चैव, सावित्री जननी तथा।।12।।
तुष्टि: पुष्टिर्धृतिदीप्तिश्चन्द्रादित्य-विवर्धनी।
भूतिर्भूति-मतां संख्ये, वीक्ष्यसे सिद्ध-चारणै:।।13।।
।। फल-श्रुति ।।
य: इदं पठते स्तोत्रं, कल्यं उत्थाय मानव:।
यक्ष-रक्ष:-पिशाचेभ्यो, न भयं विद्यते सदा।।1।।
न चापि रिपवस्तेभ्य:, सर्पाद्या ये च दंष्टिï्रण:।
न भयं विद्यते तस्य, सदा राज-कुलादपि।।2।।
विवादे जयमाप्नोति, बद्धो मुच्येत बन्धनात्।
दुर्गं तरति चावश्यं, तथा चोरैर्विमुच्यते।।3।।
संग्रामे विजयेन्नित्यं, लक्ष्मीं प्राप्नोति केवलाम्।
आरोग्य-बल-सम्पन्नो, जीवेद् वर्ष-शतं तथा।।4।।

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